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शांकर-पर्शनम्
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ढंग का अद्वितीय है। इन्होंने सम्पूर्ण भारत का भ्रमण करके वेदान्त मत की प्रतिष्ठा की तथा कई स्थानों पर मठों की स्थापना की । शंकर के समकालिक मण्डनमिश्र थे, जिन्होंने मीमांसा में बहुत यश प्राप्त किया था, परन्तु शंकर के ही प्रभाव से ये वेदान्त मत में दीक्षित हो गये। इन्होंने ब्रह्मसिद्धि नामक ग्रन्थ लिखा, जिस पर वाचस्पति मिश्र ने ब्रह्मतत्त्वसमीक्षा, चित्सुख ( १२२५ ई० ) ने अभिप्रायप्रकाशिका और आनन्दपूर्ण ने भावशुद्धि नाम से टीकाएं की थीं । मण्डन ने वेदान्ती होने पर अपना नाम सुरेश्वराचार्य रखा था । शंकर के शिष्य पद्मपादाचार्य थे, जिन्होंने शारीरकभाष्य पर पञ्चपादिका वृत्ति लिखी, जिसमें केवल चतुःसूत्री का विवेचन है । पञ्चपादिका पर कई टीकाएं लिखी गयीं, जिनमें प्रकाशात्मयति ( १२०० ई० ) की विवरण टीका प्रसिद्ध है। इसके नाम पर विवरण-प्रस्थान ( Vivarana School ) ही बन गया। विवरण की दो टीकाएं हैं-अखण्डानन्द सरस्वती ( १५०० ई० ) कृत तत्त्वदीपन तथा विद्यारण्य ( १३५० ई० ) कृत विवरणप्रमेयसंग्रह।
सुरेश्वराचार्य के शिष्य सर्वज्ञात्ममुनि ( ९०० ई० ) ने संक्षेपशारीरक नामक एक पद्यबद्ध व्याख्या-ग्रन्थ लिखा। वाचस्पति मिश्र ( ८५० ई० ) ने शारीरकभाष्य पर अपनी सुप्रसिद्ध भामती नाम की टीका लिखी, जो भाष्य के बाद अद्वितीय ग्रन्थ है। इसकी दो सुप्रसिद्ध टीकाएं हैं-अमलानन्द (१५५० ई०) की कल्पतरु टीका और अप्पयदीक्षित ( १५५० ई० ) की परिमल टीका । महाकवि श्रीहर्ष ( ११५० ई० ) का खण्डनखण्डखाद्य वेदान्त का नैयायिक विधि से विश्लेषण करनेवाला ग्रन्थ है । चित्सुखाचार्य ( १२२५ ई०) ने सुरेश्वर की नैष्कर्म्यसिद्धि पर, ब्रह्मसिद्धि पर तथा शारीरकभाष्य पर टीकाएं लिखकर एक स्वतन्त्र ग्रन्थ प्रत्यक्तत्वदीपिका (चित्सुखी ) के नाम से लिखा । प्रस्तुत सर्वदर्शनसंग्रह के रचयिता माधवाचार्य संन्यस्त होकर विद्यारण्य के नाम से प्रसिद्ध हुए और उन्होंने अपनी स्वतन्त्र कृति पंचदशी नाम से दो । शांकर-दर्शन के अन्य ग्रन्थों में आनन्दबोध का न्यायमकरन्द, मधुसूदन सरस्वती की अद्वैतसिद्धि तथा सिद्धान्तबिन्दु, अप्पय दीक्षित का सिद्धान्तलेशसंग्रह, धर्मराजाध्वरीन्द्र की वेदान्तपरिभाषा एवं सदानन्द का वेदान्तसार प्रसिद्ध हैं।
( ३. ब्रह्म को जिज्ञासा-प्रथम अधिकरण ) तत्र प्रथममधिकरणमथातो ब्रह्मजिज्ञासा (ब्र० सू० ११११) इति ब्रह्ममीमांसारम्भोपपादनपरम् । अधिकरणं च पञ्चावयवं प्रसिद्धम् । ते च विषयादयः पञ्चावयवा निरूप्यन्ते। 'आत्मा वारे द्रष्टव्यः' (बृह० २१४१५) इत्येतद्वाक्यं विषयः । ब्रह्मजिज्ञासितव्यं न वेति सन्देहः । जिज्ञास्यत्वव्यापकयोः सन्देहप्रयोजनयोः सम्भवासम्भवाभ्याम् ।