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________________ ६४६ सर्वदर्शनसंग्रहे____उस ( ब्रह्मसूत्र ) में पहला अधिकरण ( Topic ) है—'अथातो ब्रह्मजिज्ञासा' ( अब इसलिए ब्रह्म की जिज्ञासा होती है-(ब्र० सू० १११।१ ), जिसमें ब्रह्ममीमांसा ( वेदान्तशास्त्र ) के आरम्भ का प्रतिपादन किया गया है। अधिकरण में पांच खण्ड होते हैं, यह प्रसिद्ध ही है [ = विषय, संशय, पूर्वपक्ष, उत्तरपक्ष तथा संगति ( या निर्णय ) । देखिये-जैमिनिदर्शन । ] अब विषय आदि उन पांच अवयवों ( Organs ) का निरूपण किया जाता है। 'आत्मा का दर्शन करना चाहिए' ( वहदारण्यक० २।४।५)-यह वाक्य विषय है। ब्रह्म की जिज्ञासा करनी चाहिए या नहीं—यह सन्देह है। जिज्ञासा के लिए सन्देह और प्रयोजन दोनों ही आवश्यक हैं। [किसी पक्ष में इन दोनों के रहने से जिज्ञासा ] सम्भव है कभी [ अकेले के रहने से ] असम्भव भी हो सकती है। [ सन्देह वहीं होता है, जहां किसो की सम्भावना और असम्भावना दोनों हों। जिज्ञासा के साथ भी यही बात है, कहीं नो जिज्ञासा सम्भव है, कहीं असम्भव भी । कारण यह है कि किसी की जिज्ञासा तभी हो सकती है. जब उसके विषय में सन्देह भी हो और जिज्ञासा का प्रयोजन ( फल ) भी मिले । जिस अर्थ के विषय में सन्देह नहीं है, वस्तु पूर्ण निश्चित है, उसमें प्रयोजन रहने पर भी उसकी जिज्ञासा नहीं होती, क्योंकि वह वस्तु तो ज्ञात ही है। उसी तरह जहाँ जिज्ञासा का फल कुछ नहीं हो वहाँ वस्तु सन्दिग्ध होने पर भी जिज्ञासा नहीं होती, क्योंकि वह ज्ञान निरर्थक हो जायगा। इसलिए जहाँ दोनों नहीं होंगे वहाँ जिज्ञासा नहीं होगी । जहाँ दोनों होंगे वहाँ जिज्ञासा हो सकेगी। दो पक्षों के होने से ही सन्देह हो गया। ] .. ( ४ आत्मा को जिज्ञासा असम्भव-सन्देह की असम्भावना ) तत्र कस्येदं जिज्ञास्यत्वमवगम्यते ? अहमनुभवगम्यस्य श्रुतिगम्यस्य वा ? नाद्यः। सर्वजनीनेनाहमनुभवेन इदमास्पददेहादिभ्यो विवेकेनात्मनः स्पष्टं प्रतिभासमानत्वात् । ननु स्थूलोऽहं कृशोऽहमित्यादिदेहधर्मसामानाधिकरण्यानुभवात् अध्यस्तात्मभावदेहालम्बनोऽयमहंकार इति चेन्न । बाल्याद्यवस्थासु भिन्नपरिमाणतया बदरामलकादिवत्परस्परभेदेन शरीरस्य प्रत्यभिज्ञानानुपपत्तेः। आप किसे जिज्ञास्य समझते हैं-'अहम्' ( मैं ) इस अनुभव से ज्ञेय ( आत्मा ) को या श्रुति के द्वारा ज्ञेय ( आत्मा ) को ? पहला विकल्प तो ठीक नहीं ही है । 'अहम्' का अनुभव सर्वजनीन रूप से प्रसिद्ध है, देह आदि का अनुभव 'इदम्' ( यह-Third person ) शब्द से होता है। तो देहादि से आत्मा स्पष्टतः अलग प्रतीत होती है। [ सन्देह ही नहीं है तो जिज्ञासा क्यों होगी ? अनिश्चित वस्तु को ही जिज्ञासा होती है। ] [आत्मा की जिज्ञासा असम्भव मानने वाले पूर्वपक्षी कहते हैं कि ] यहां पर कुछ लोग शंका कर सकते हैं कि आपका यह 'अहम्' कहना तो शरीर पर आत्मा का आरोपण करने
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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