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________________ पाणिनि-दर्शनम् ५२५ दशा को केवल अविद्या मान लेने के कारण होता है। चूंकि अभेद पारमार्थिक (वास्तविक) है, अतः संवृति ( आवरण, कल्पना ) के कारण, व्यवहार-दशा में, स्वप्नावस्था की तरह, नाना प्रकार के प्रपंच (विस्तारपूर्ण वस्तुएँ ) भ्रम से दिखलाई पड़ते हैं । यही उक्त कारिका ( वाक्य० ३।२।१६ ) का अर्थ है। तवाहुर्वेदान्तवादनिपुणाः. २१. यथा स्वप्नप्रपञ्चोऽयं मयि मायाविजृम्भितः ।। एवं जाग्रत्प्रपञ्चोऽपि मयि मायाविजृम्भितः ॥ इति । तदित्थं कूटस्थे परस्मिन्ब्रह्मणि सच्चिदानन्दरूपे प्रत्यगभिन्नऽवगतेsनाद्यविद्यानिवतो तादृग्ब्रह्मात्मनावस्थानलक्षणं निःश्रेयस सेत्स्यति । उसे वेदान्त-मत के विशेषज्ञों ने व्यक्त किया है-'जैसे यह स्वप्न का प्रपञ्च मेरे अन्दर की माया की वृद्धि के कारण है वैसे ही यह जागृतावस्था का प्रपञ्च भी मेरे अन्दर की माया की वृद्धि के कारण ही है। [ जागृतावस्था के स्तर से हम स्वप्न की बातों को मिथ्या मानते हैं वैसे ही पारमार्थिक दशा के स्तर से जागृतावस्था की चीजों को भी मिथ्या ही कहना चाहिए।' तो इस प्रकार कूटस्थ, परब्रह्म जो सच्चिदानन्द के रूप में तथा जीव (प्रत्यक् ) से अभिन्न हैं, उन्हें जान लेने पर अनादिकाल से चली आनेवाली अविद्या की निवृत्ति हो जाती है तथा उस निःश्रेयस की प्राप्ति होती है जिसमें साधक ब्रह्म के रूप में अवस्थित हो जाता है। ( १४. व्याकरण से मोक्ष प्राप्ति ) 'शब्दब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति' ( महाभारत, शा०प० अ० २७० ) इत्यभियुक्तोक्तः। तथा च शब्दानुशासनशास्त्रस्य निःश्रेयससाधनत्वं सिद्धम् । तदुक्तम् २२. तद् द्वारमपवर्गस्य वाङ्मलानां चिकित्सितम् । ____ पवित्रं सर्वविद्यानामधिविद्यं प्रचक्षते ॥ ( वाक्यपदीयम् । १।१४) इति । तथा २३. इदमाद्यं पदस्थानं सिद्धिसोपानपर्वणाम् । इयं सा मोक्षमाणानामजिह्मा राजपद्धतिः ॥ (वाक्य० १११६ ) इति । तस्माद् व्याकरणशास्त्रं परमपुरुषार्थसाधनतयाऽध्येतव्यमिति सिद्धम् । इति श्रीमत्सायणमाधवीये सर्वदर्शनसंग्रहे पाणिनिदर्शनम् ॥
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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