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नकुशील - पाशुपत-दर्शनम्
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नहीं मिलता । फिर भी इससे कोई क्षति नहीं है । ] इससे ( कर्म के निष्फल होने पर ) भी कर्मों में अप्रवृत्ति नहीं होती, क्योंकि किसान आदि के उदाहरणों से इसकी पुष्टि हो जाती है । ईश्वर की इच्छा के अधीन ही पशुओं की प्रवृत्ति होती है । [ आशय यह है कि जहाँ ईश्वर उदासीन रहता है उन कर्मों का फल नहीं मिलता । परन्तु यह कोई पहले से नहीं जानता कि इस कर्म के प्रति ईश्वर उदासीन है । परिणाम यह होता है कि कर्म के निष्फल होने पर लोग फिर से उसके सम्पादन में लगते हैं । खेती खराब हो जाने पर भी किसान उसमें फिर लगता है—उसे यह ज्ञान कहाँ कि खेती फिर खराब होगी । यदि कोई पहले से कर्मवैफल्य का ज्ञान रखे तब उसे करेगा ही नहीं । इसलिए यह कहना कि प्राणी का प्रयोजनाभाव ही कर्मवैफल्य का कारण है, ठीक नहीं । प्राणी में प्रयोजन ( लक्ष्य Motive ) रहने पर भी तो कर्म निष्फल हो जाता है। ईश्वर की इच्छा पर ही कर्म निर्भर करते हैं । स्मरण रखना है कि फलदान के दो स्रोत हैं — ईश्वर और कर्म । ईश्वर के द्वारा दिये गये फल में कर्म की अपेक्षा नहीं है जब कि कर्म के द्वारा मिलनेवाले फल में ईश्वर की अपेक्षा रहती है। न तो ईश्वर के स्वातन्त्र्य की हानि ही होती है और न जीव की अप्रवृत्ति ही देखी जाती है । ]
नापि द्वितीयः । परमेश्वरस्य पर्याप्तकामत्वेन कर्मसाध्यप्रयोजनापेक्षाया अभावात् । यदुक्तं समसमयसमुत्पाद इति, तदप्ययुक्तम् । अचिन्त्य - शक्तिकस्य परमेश्वरस्य इच्छानुविधायिन्या अव्याहतक्रियाशक्त्या कार्यकारित्वाभ्युपगमात् । तदुक्तं सम्प्रदायविद्धि:
९. कर्मादिनिरपेक्षस्तु स्वेच्छाचारी यतो ह्ययम् ।
ततः कारणतः शास्त्रं सर्वकारणकारणम् ॥ इति ।
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दूसरा विकल्प ( कि ईश्वर में प्रयोजन न होना ही कर्म की विफलता का कारण है ) भी ठीक नहीं है । परमेश्वर की सारी कामनाएं परिपूर्ण हैं अतः कर्म के द्वारा उत्पन्न होनेवाले प्रयोजन की उसे अपेक्षा नहीं रहती । [ ईश्वर कर्मनिरपेक्ष है, कर्म-सम्बन्धी कोई भी इच्छा उसमें नहीं है । इस प्रकार कर्म की विफलता का कोई कारण नहीं है । निरपेक्ष ईश्वर की कारणता पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता । ]
दूसरा आरोप जो लगाया गया है कि सभी कार्यों का उत्पादन एक ही साथ होने लगेगा यह भी ठीक नहीं है । परमेश्वर की शक्ति अचिन्तनीय है, उसकी क्रियाशक्ति अव्याहत है ( कहीं भी कुण्ठित नहीं होती ) जो उसकी इच्छा का हो अनुसरण करती है । परमेश्वर की इस शक्ति में कोई भी कार्य करने की शक्ति है । सम्प्रदाय के वेत्ताओं ने कहा है
चूँकि वह ( ईश्वर ) कर्मादि से निरपेक्ष ( स्वतन्त्र ) है, अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करनेवाला है । इसी कारण से शास्त्र में उसे सभी कारणों का कारण कहा गया है।'