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________________ ६७२ सर्वदर्शनसंग्रहे २।५।१ ) में 'आनन्दमय' शब्द से आनन्द की प्रचुरता का बोध होता है, साथ-साथ उसके विरोधी अंश (= द्रव्यांश ) का भी थोड़ा ही सही, अस्तित्व मालूम पड़ता है । सोकर उठने पर कितने आदमी कहते हैं कि मैं सुख से सोया रहा, कुछ स्वप्न में जान नहीं सका। यह दशा सुषुप्ति की थी । यदि इस दशा में प्रकाश नहीं होता तो ऐसा कहना कभी सम्भव नहीं था कि सुषुप्ति में कुछ बोध नहीं रहता है । इसलिए आत्मा में प्रकाश का अंश सिद्ध होता है साथ-साथ बोध का अभाव रहता है इसलिए अप्रकाशांश अर्थात् द्रव्यांश भी उस ( सुषुप्ति की ) दशा में है इसलिए ये लोग आत्मा को द्रव्यस्वभाव और ज्ञानस्वभाव मानते हैं।] । भोक्तव केवलं न कति सांख्याः संगिरन्ते । चिद्रूपः कर्तृत्वादिरहितः परस्मादभिन्नः प्रत्यगात्मेत्यौपनिषदा भाषन्ते। एवं प्रसिद्ध मिणि विशेषतो विप्रतिपत्तौ तद्विशेषसंशयो युज्यते। तथा च सन्देहसम्भवाज्जिज्ञास्यत्वं ब्रह्मणः सिद्धम् । तदित्थं ब्रह्मणो विचार्यत्वसम्भवेन तद्विचारात्मकं ब्रह्ममीमांसाशास्त्रमारम्भणीयमिति युक्तम् । 'जन्माद्यस्य यतः' (ब्र० सू० ११२) इत्यादि सर्वस्य शास्त्रस्यैतद्विचारापेक्षत्वात् शास्त्रप्रथमाध्यायसंगतमिदमधिकरणम् । सांख्य लोग कहते हैं आत्मा ( पुरुष ) केवल भोक्ता है, कर्ता नहीं। उपनिषदों के अध्येताओं का कथन है कि जीवात्मा चित् के रूप में, कर्तृत्वादि विशेषणों से रहित तथा परमात्मा से अभिन्न है । इस प्रकार धर्मी ( आत्मा ) प्रसिद्ध है परन्तु उसके विशेषणों ( गुणों ) को लेकर विवाद है । इसलिए आत्मा के विशेष (धर्म, गुण ) के विषय में संशय होना युक्तिसंगत ही है । और जब सन्देह होना सम्भव है तो ब्रह्म का जिज्ञासा का विषय होना भी सिद्ध है। अब चूंकि ब्रह्म विचारणीय हो सकता है इसलिए उसका विचार करनेवाले ब्रह्ममीमांसा शास्त्र का आरम्भ करना चाहिए, यह उचित है। [ इस प्रकार यह उत्तर-पक्ष हुआ। ] 'जिससे इस संसार के जन्म आदि होते हैं' (ब्र० स० १११२ ) यहाँ से आरम्भ करके यह समूचा शास्त्र इसी ब्रह्म के विचार में लगा हुआ है इसलिए शास्त्र के प्रथमाध्याय ( समन्वय से सम्बद्ध अध्याय ) के साथ यह अधिकरण संगत है। [ यह संगति विशेष-इस प्रकार उदाहरण के लिए प्रथम सूत्र से सम्बद्ध ब्रह्मजिज्ञासा-अधिकरण का विस्तृत विश्लेषण किया गया। वास्तव में इसमें अधिक स्थान तो पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष ने ही घेर लिया जिसमें अवान्तर पक्षों और विषयों का भी यथास्थान समावेश कर दिया गया है। इससे लाभ यह हुआ कि दर्शन के मूलभूत सिद्धान्तों से परिचय हो गया । वे विषय है-आत्मा ( ब्रह्म ) तथा अध्यास ।
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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