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________________ ४८ सर्वदर्शनसंग्रहे ( १४. निष्कर्ष-क्षणिकवाद को स्थापना ) तस्माद्विपक्षे क्रमयोगपद्यव्यावृत्त्या, व्यापकानुपलम्भेन अधिगतव्यतिरेकव्याप्तिक, प्रसङ्गतद्विपर्ययबलाद् गृहीतान्वयव्याप्तिकं च सत्त्वं क्षणिकत्वपक्ष एव व्यवस्थास्यतीति सिद्धम् । तदुक्तं ज्ञानश्रिया५. यत्सत्तक्षणिकं यथा जलधरः सन्तश्च भावा अमी सत्ता शक्तिरिहार्थकर्मणि मितेः सिद्धषु सिद्धा न सा। नाप्येकव विधान्यथा परकृतेनापि क्रियादिर्भवेद् द्वेधापि क्षणभङ्गसङ्गतिरतः साध्ये च विश्राम्यति ॥ इसलिए [ अब सारे तर्कों का निष्कर्ष निकालते हुए कहते हैं कि ] सत्ता क्षणिकत्व के पक्ष में ही व्यवस्थित होती है—यही सिद्ध हुआ । इसके ये कारण हैं-( १ ) विपक्ष ( अक्षणिक, स्थायी ) में क्रम और योगपद्य ( अक्रम, एक साथ होना )-दोनों की असिद्धि हो जाती है । [ विपक्ष वह है जो निश्चित साध्य का अभाव धारण करे-निश्चितसाध्याभाववान्विपक्षः । जब बौद्ध लोग क्षणिकत्व की स्थापना करते हैं. तो उनके लिए क्षणिकत्व साध्य है और उसके विरुद्ध अक्षणिक माने गये ईश्वर, घट, पटादि विपक्ष हैं । .:. विपक्ष = स्थायी ( यहाँ पर)। ऊपर दिखला चुके हैं कि स्थायी भाव का क्रम या अक्रम से भी अर्थक्रियाकारी नहीं हो सकता । ] इसके फलस्वरूप व्यापक के अनुपलम्भ से भी सत्व में व्यत्तिरेक-व्याप्ति प्राप्त होती है। [ आशय यह है- अर्थक्रियाकारित्व व्याप्य है और क्रम अक्रम में से कोई एक व्यापक बन जाता है । जब ईश्वरादि स्थायी पदार्थ में क्रम या अक्रम का अभाव सिद्ध करते हैं तो व्याप्य अर्थक्रियाकारित्व का भी अभाव हो जाता है। व्यापक के अभाव में व्याप्य का अभाव होना व्यतिरेक व्याप्ति है, इसलिए यहाँ भी व्यतिरेक व्याप्ति से सिद्ध होता है कि अक्षणिक पदार्थ का अर्थक्रियाकारित्व नहीं होगा और चूँकि सत्ता के लिए अर्थक्रियाकारी होना आवश्यक है, सत्ता को क्षणिक होना चाहिए।] (२) प्रसंग और उसके विपर्यय के बल से सत्त्व में अन्वयव्याप्ति का ग्रहण होता है। [ व्याप्य के सत् होने से व्यापक का सत् होना, यही अन्वयव्याप्ति है। उदाहरणार्थ-जो सत् है वह क्षणिक है। सत्ता अर्थक्रियाकारी होती है। यदि उसे क्षणिक न मानकर (विपक्ष में ) नित्य स्वीकार करते हैं तो उसमें सामर्थ्य होने से भाव ( सत्ता ) सदा सभी कार्यों को उत्पन्न करने लगेगा-यह प्रसंग है । सामर्थ्य न होने से कभी नहीं करेगा—यह विपर्यय है; इसलिए अर्थ...कारो को ( साथ-साथ, सत्ता को ) क्षणिक होना परम आवश्यक है-यह अन्वयव्याप्ति है । इस प्रकार दोनों से क्षणिक सत्ता की सिद्धि होती है। ज्ञानश्री ने भी कहा है-जिसकी सत्ता है, वह क्षणिक है, जैसे-जलधर और ये सत्ता-सम्पन्न भाव ( वस्तुएं-घट, पटादि)। अर्थ-कर्म की जो शक्ति ( = कुछ
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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