________________
४९
बौद्ध दर्शनम्
चीज उत्पन्न करने का सामर्थ्य ) है वही सत्ता है, इसमें प्रमाण ( मिति ) है [ जिससे न तो कोई वस्तु ही उत्पन्न होती और न ज्ञान ही, वैसी वस्तु की सत्ता नहीं है । उसके अस्तित्व का प्रमाण कौन देगा ? अर्थकर्म की शक्ति रखनेवाले पदार्थ की सत्ता का प्रमाण तो है ] | यह सत्ता सिद्ध ( स्थिर ) पदार्थों में स्थिर नहीं है ( किन्तु क्षणिक पदार्थों में ही सिद्ध है और स्वयं भी यह सत्ता क्षणिक ही है ) । [ अक्षणिक से कार्योत्पत्ति का ] एक ही प्रकार नहीं है । [ किन्तु स्वाभाविक होने पर क्रम से या अक्रम से ( एक साथ ) होता है । ] नहीं तो दूसरे के द्वारा भी दूसरे की क्रिया उत्पन्न हो सकती है । ( = कार्योत्पादन अगर नैमित्तिक नहीं हो तो सहकारी उपकार के द्वारा भी कार्योत्पत्ति होगी, कारण की आवश्यकता ही नहीं है— इससे भी कारण अक्षणिक नहीं होता, वह क्षणिक ही रहता है ।) इस प्रकार दोनों रीतियों ( क्रम और अक्रम ) से क्षण पदार्थों के भंग ( विनाश ) की संगति ( सिद्धि ) होती है और अन्त में हमारे साध्य ( क्षणिकं क्षणिकम् ) को ही सिद्ध करती है ।
विशेष- -ऊपर बौद्धों की एक भावना 'सर्वं क्षणिकं क्षणिकम्' की व्याख्या विधिवत् की गई है। इसमें सत्ता-विषयक विरोधी वाद ( स्थायिवाद ) का युक्तियुक्त खण्डन करके अपने पक्ष की सम्यक् प्रतिष्ठा हुई है तदनुसार संसार में जितनी भी वस्तुएं हैं, परिवर्तनशील हैं । उनकी परिवृत्ति क्षण-क्षण में होती जा रही है। एक ही चीज को हम दो बार नहीं देख सकते, एक ही नदी में दो बार स्नान नहीं कर सकते और न एक ही मनुष्य को दो बार प्रणाम कर सकते हैं। किसी की भी सत्ता क्षणमात्र के लिए हैकार्योत्पत्ति ही वस्तुओं का उद्देश्य है । एक क्षण में रहना, दूसरे क्षण में अर्थक्रिया और विनाश - यही है बौद्धों का सत्ताविषयक सिद्धान्त । वैभाषिक और सौत्रान्तिक लोग तो इस पर और भी जोर देते हैं । पाश्चात्य दार्शनिक वस्तुओं की क्षणिकता में देश और काल को बड़ा महत्त्व देते हैं । उनके अनुसार क्षण-क्षण में वस्तुओं का देश ( Space, place ) और काल ( Time ) बदलता जा रहा है । इन दोनों गुणों से विशिष्ट होने पर एक सेकेण्ड में भी उसी वस्तु के दो रूप देखे जा सकते हैं ।
( १५. सामान्य का खण्डन ) न च कणभक्षाक्षचरणादिपक्षकक्षीकारणे सत्तासामान्ययोगित्वमेव सत्त्वमिति मन्तव्यम् । सामान्यविशेषसमवायानामसत्त्वप्रसङ्गात् । न च तत्र स्वरूपसत्तानिबन्धनः सद्व्यवहारः । प्रयोजक गौरवापत्तेः । अनुगतत्वाननुगतत्वविकल्पपराहतेश्च । सर्वपमहीधरादिषु विलक्षणेषु क्षणेव्वनुगतस्याकारस्य मणिषु सूत्रवद्, भूतगणेषु गुणवच्चाप्रतिभासनाच्च ।
कणाद ( कणों को एकत्र करके खानेवाले कणाद - वैशेषिक-सूत्रकार ) और अक्षपाद ( गौतम - न्याय - सूत्रकार, किंवदन्ती के अनुसार जिनके चरणों में आँखें थीं ) आदि के पक्षों
४ स० सं०