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________________ बौद्ध-दर्शनम् ४७ प्रसंगविपर्यय भी उसी क्रम में वर्णित हो चुका है.--'यद् यदा यन्न करोति०' इत्यादि । उसमें भी सिद्ध हुआ है कि वर्तमान अर्थक्रिया के काल में अतीत और भविष्य की कार्योपति नहीं होती । इस प्रकार असामर्श के द्वारा स्थायी पदार्थ सिद्ध नहीं होता । अब 'सामर्थ्य' का सामर्थ्य भी देखें । (१३. ख. सामर्थ्य-साधक प्रसंग और तद्विपर्यय ) सामर्थ्यसाधकावभिधीयते । यद्यदा यज्जननासमर्थ तत्तदा तन्न करोति यथा शिलाशकलमङकुरम् असमर्थश्चायं वर्तमानार्थक्रियाकरणकालेऽतीतानागतयोरर्थक्रिययोरिति प्रसङ्गः। यद्यदा यत्करोति तत्तदा तत्र समर्थं यथा सामग्री स्वकार्ये । करोति चायमतीतानागतकाले तत्कालवतिन्यावर्थक्रिये भाव इति प्रसङ्गव्यत्ययो विपर्ययः। अब हम सामर्थ्य के साधक [ प्रसंग और उसके विपर्यय ] का वर्णन करते हैं । एक समय में जो पदार्थ जिस किसी दूसरे पदार्थ को उत्पन्न करने में असमर्थ है, उस समय वह उसे उत्पन्न नहीं करता जैसे पत्थर का टुकड़ा अंकुर को [ उत्पन्न नहीं करता क्योंकि पत्थर के टुकड़े में असमर्थता है)। यह (बीजादि भाव ) अर्थक्रिया करने के समय अतीत और अनागत ( भविष्य ) की अर्थक्रियाओं के करने में असमर्थ है-इस प्रकार प्रसंग हुआ ( = प्रसंगानुमान )। एक समय में जो जिसे उत्पन्न करता है वह उस समय में उसके लिए समर्थ है जैसे कारणों की पूरी सामग्री अपने कार्य को उत्पन्न करने के लिए। यह भाव अतीत और अनागत काल में उस समय में चलनेवाली अर्थक्रियाओं को उत्पन्न करता है ( .:. वह उनके लिए समर्थ है )।--इस प्रकार प्रसंग का उल्लंघन करनेवाला उसका विपर्यय है । विशेष-सामर्थ्यसाधक और असामर्थ्य-साधक के निम्नोक्त प्रकार से अनुमान होते हैं जिनमें ये व्याप्तियाँ हैं । क्रिया-करण और सामर्थ्य के समनियत होने के कारण दोनों ( क्रियाकरण तथा सामर्थ्य ) में व्याप्त और व्यापक का परस्पर भाव रहता है इसलिए दो व्यातियाँ होती हैं-(१) यत्करोति तत्समर्थम् ( क्रियाकरण-व्याप्य, सामर्थ्यव्यापक ), (२) यत्समर्थ तत्करोति ( सामर्थ्य-व्याप्य, क्रियाकरण-व्यापक )। इसी प्रकार क्रिया के अकरण और असामर्थ्य में भी व्याप्य-व्यापक का भाव है जिससे दो व्यातियां हो सकती हैं-( ३ ) यन्न करोति तदसमर्थम् [ क्रिया-अकरण-व्याप्य, असामर्थ्य-व्यापक ), (४) यदसमर्थम् तन्न करोति ( असामर्थ्य-व्याप्य, क्रिया-अकरण - व्यापक )। इन चारों व्याप्तियों पर विचार करने पर पहली सामर्थ्यसाधिका अन्वयव्याति निकलती है, दूसरी असामर्थ्यसाधिका व्यतिरेकव्याप्ति, तीसरी असामर्थ्यसाधिका अन्वयव्याप्ति और चौथी सामर्थ्यसाधिका व्यतिरेकव्याप्ति है इन्हीं का संकलन ऊपर के अनुमानों में किया गया है।
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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