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सर्वदर्शनसंग्रहे
का प्रयोग किया गया है किन्तु अर्थ में उन्हें ही हटाना पड़ेगा - यह बहुत सुन्दर रूपकातिशयोक्ति है। इसकी ही व्याख्या भागवत में यों की गई है
सुपर्णाविती सदृशौ सखायो यदृच्छयेतौ कृतनीडौ च वृक्षे । एकस्तयोः खादति पिप्पलान्नं स पिप्पलादो न तु पिप्पलादः ॥ ( ११।११।६ ) ।
श्लोक का भाव बहुत पुराना है, इसमें कोई सन्देह नहीं । 'नानात्मानो व्यवस्थातः' का भाव है कि संसार में किसी को सुख मिलता है, किसी को दुःख, कोई बन्धन में है तो कोई मुक्त – इस प्रकार की व्यवस्थाएं ( विभिन्न अवस्थाएं ) प्राप्त होती हैं । इसलिए जीवात्माओं को नाना प्रकार का मानते हैं, जीव एक नहीं है । तत्त्वावली में कहा है
कश्चिद्रङ्कः कश्चिदाढ्यः कश्चिदन्यविधः पुनः ।
अनयेवात्मनानात्वं सिध्यत्यत्र व्यवस्था || ( तत्त्वा० ९० ) |
इस प्रकार जीवात्मा को परमेश्वर से भिन्न, नाना प्रकार का तथा नित्य माना गया है ।
अपरथा कृतप्रणाशाकृताभ्यागमप्रसङ्गः । अत एवोक्तम्- ' वीतरागजन्मादर्शनात्' ( न्या० सू० ३।१।२५ ) इति । तदणुत्वमपि श्रुतिप्रसिद्धम् - ११. बालाग्रशतभागस्य शतधा कल्पितस्य च । भागो जीवः स विज्ञेयः स चानन्त्याय कल्पते ।। ( श्वे ० ५।९ ) इति ।
'आराग्रमात्रः पुरुषः' ( श्वे० ५।८ ), 'अणुरात्मा चेतसा वेदितव्यः' ( मुण्ड० ३।१।९ ) इति च ।
यदि जीव को नित्य नहीं मानें ( और जीव की उत्पत्ति और विनाश शरीर के साथसाथ मानें तो किये गये कर्म का नाश तथा नहीं किये गये कर्म के फल की प्राप्ति का संयोग हो जायगा । [ कर्म करने के बाद शरीर के साथ ही जीव मर जायगा, फिर कर्म का नाश ही हो जायगा — चार्वाक मत की सिद्धि होगी । जमान्तर का तो अभाव ही होगा, लेकिन जन्म लेते ही व्यक्ति को सुख, दुःख का फल मिलने लगता है । यह तो बिना किये कर्म का ही फल है । यदि इन बातों को स्वाभाविक मानते हैं तो चार्वाक का चेला बनें ] इसीलिए [ गौतम ने न्यायसूत्र में ] कहा है कि राग ( Desire ) से रहित व्यक्ति का जन्म नहीं होता ( न्यायसूत्र ३।१।२५ ) | | इससे अनुमान लगता है कि राग से अनुबद्ध होकर ही प्राणी जन्म लेता है । राग तभी उत्पन्न किये गये विषयों का अनुचिन्तन किया जाय । पूर्वानुभव तभी हो सकता है जब दूसरे जन्म
होता है जब पहले से अनुभव