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________________ शांकर-दर्शनम् आदि प्रमाण तो उसे ( श्रुतिध ) करने तुम्हारे ( मीमांसकों के ) मत में भी असमर्थ ही हैं । [ श्रुति की अपेक्षा लिंग ( अनुमान ) दुर्बल होता है - ३० पृ० ५१४ । ] ॥ ५४ ॥ हे बुद्धिमान पुरुषो ! [ अद्वैत प्रतिपादक ] स श्रुति में बाध के लिए अपनी बुद्धि तुम उसी समय खर्च कर सकते हो जब हाथ में आयी हुई चिन्तामणि को तुम समुद्र में फेंकने की इच्छा करो | अभिप्राय यह है कि अद्वैत-जैसा सुन्दर सिद्धान्त हाथ में है और उसे काटने के लिए नाना प्रकार के प्रयास कर रहे हो, यह ठीक नहीं । ] ॥ ५५ ॥ ७५.३ इसलिए तत्त्वज्ञान के द्वारा इसकी निवृत्ति करने के लिए बन्ध को अज्ञानकलित ही मानना चाहिए | क्योंकि कहा भी है— चूंकि ज्ञान ही अज्ञान का निवर्तक है । विशेष - नैषधीयचरित के प्रसिद्ध रचयिता महाकवि श्रीहर्ष के खण्डनखण्डसाद्य से लिये गये इन श्लोकों में अनुप्रास की छटा देखने ही योग्य है । सब कुछ होने पर भी वे मूलतः कवि थे । देखें – 'क्षतः क्षतः', 'मते मते ' ( पादान्त यमक ) । 'धीधना बाधना', 'मणि पाणि', 'लब्धमन्त्री' । एक तो अनु छन्द, दूसरे दर्शन का ग्रन्थ - उसमें इतने चमत्कारी शब्दों की योजना ! ( २४. प्रपञ्च की सत्यता का खण्डन - सत्य की निवृत्ति नहीं ) यदुक्त - 'सत्यस्यापि दुरितस्य सेतुदर्शनेन निवृत्तिरुपलभ्यत इति' - तदयुक्तम् । विहितक्रियानुष्ठानेन जनितस्य धर्मस्याधर्मनिवर्तकत्वधौव्यात् । 'धर्मेण पापमपनुदन्ति' (म० ना० २२1१ ) इति श्रुतेः । प्रमाणवस्तुपरतन्त्रशालिन्या दर्शनक्रियायाश्वोदितपुरुष प्रयत्नतन्त्रत्वाभावेन विधानासम्भवात् । पूर्वपक्षियों ने जो कहा है कि सचमुच के ( Real ) पाप का नाश सेतु ( रामेश्वरपुल ) के देखने से हो जाता है, वह संगत नहीं है । विहित क्रियाओं के अनुष्ठान से उत्पन्न होनेवाला धर्म, अधर्म की निवृत्ति करता है - यह बिल्कुल निश्चित ( ध्रुव ) है | इसकी पुष्टि के लिए श्रुति प्रमाण भी है - 'धर्म से पाप का नाश करते हैं' ( महानारायण० २२॥१ ) [ इससे यह निष्कर्ष निकला कि पाप का नाशक धर्म है, ज्ञान नहीं । अब दिखाते हैं कि दर्शन-क्रिया विहित है या नहीं ? अधीन रहती है, प्रेरित पुरुष के प्रयत्नों के अधीन वह नहीं रहती; ] दर्शन-क्रिया प्रमाण और विषय के इसलिए उसका विधान किया जाना असम्भव है । - विशेष - यज्ञादि कर्म मुख्यतः मनुष्यों के प्रयत्नों पर निर्भर करते हैं, इसीलिए उनका विधान करना सम्भव है। ज्ञान प्रमाणों और विषयों पर निर्भर करता है, अतः उसे विहित नहीं किया जा सकता । इसीलिए उक्त श्लोकार्ध ( सेतुं दृष्ट्वा प्रमुच्येत ० ) सेतु-दर्शन की विधि नहीं है प्रत्युत उसमें सेतुस्नान की प्रशंसा की गई है - उसके लिखने का यही अभिप्राय है ।
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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