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________________ सर्वदर्शनसंग्रहे देखकर लोग इनमें कार्यकारणभाव मान लेते हैं । इसी तरह धूम और अग्नि में भी कार्य - लेते हैं ] । कारणभाव नहीं है, लोग मान इसलिए उसका साध्य अदृष्ट आदि कुछ नहीं । ( कुछ लोगों के अनुसार अच्छे और बुरे कर्मों से उत्पन्न, पुण्य और पाप के रूप में अदृष्ट रहता है वही ऐश्वर्य देता है या रोग उत्पन्न करता है । इसे कर्मफल भी कहते हैं । ऐश्वर्यादि कार्यों को देखकर अदृष्टकारण की सिद्धि होती है जैसे घूमसे अग्नि । किन्तु जब अनुमान मानते ही नहीं, ऐश्वर्यादि स्वाभाविक ही हैं तब अदृष्ट-रूपी कारण रहेगा क्या खाकर ? ) अब, यदि प्रश्न करे कि अदृष्ट यदि नहीं है तो संसार की विचित्रता तो आकस्मिक हो जायेगी । नहीं, यह ठीक नहीं है-वह तो स्वभाव से ही सिद्ध (Self-evident) हैं । कहा भी है- 'अग्नि उण है, जल शीतल, वायु समशीतोष्ण; यह सब विचित्रता किसने की ? अपनी-अपनी प्रकृति से ही इनकी व्यवस्थायें हुई हैं ।' ( १४. चार्वाक - मत-सार ) तदेतत्सर्वं बृहस्पति नाप्युक्तम् २० १२. न स्वर्गो नापवर्गो वा नैवात्मा पारलौकिकः । नैव वर्णाश्रमादीनां क्रियाश्च फलदायिकाः ॥ १३. अग्निहोत्रं त्रयो वेदास्त्रिदण्डं भस्मगुण्ठनम् । बुद्धिपौरुषहीनानां जीविका धातृनिर्मिता ॥ १४. पशुश्चेन्निहतः स्वर्गं ज्योतिष्टोमे गमिष्यति । स्वपिता यजमानेन तत्र कस्मान्न हिंस्यते ? ॥ १५. मृतानामपि जन्तूनां श्राद्धं चेत्तृप्तिकारणम् । निर्वाणस्य प्रदीपस्य स्नेहः संवर्धयेच्छिखाम् ॥ बृहस्पति ने भी यह सब कहा है-न तो स्वर्ग है, न अपवर्ग ( मोक्ष ) और न परलोक में रहने वाली आत्मा । वर्ण, आश्रम आदि की क्रियायें भी फल देने वाली नहीं हैं ॥ १२ ॥ अग्निहोत्र, तीनों वेद, तीन दण्ड धारण करना और भस्म लगाना — ये बुद्धि और पुरुषार्थ से रहित लोगों की जीविका के साधन हैं जिन्हें ब्रह्मा ने बनाया ।। १३ ।। यदि ज्योतिष्टोम यज्ञ में मारा गया पशु स्वर्ग जायगा, तो उस जगह पर यजमान अपने पिता को ही क्यों नहीं मार डालता ? ॥ १४ ॥ मरे हुए प्राणियों को श्राद्ध से यदि तृप्ति मिले 'बुझे हुए दीपक की शिखा को तो तेल अवश्य ही बढ़ा देगा ।। १५ ।। १ १. तुलना करें - विष्णुपुराण में चार्वाक-वर्णन ( ३।१८।२५ - २८ ) पृ० २७० सिहं वाक्यं हिंसा धर्माय चेष्यते । हवीं व्यनलदग्धानि फलायेत्यर्भकोदितम् || यज्ञैरनेकैर्देवत्वमवाप्येन्द्रेण भुज्यते । शम्यादि यदि चेत्काष्ठं तद्वरं पत्रभुक्पशुः ॥ ७
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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