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________________ ३५८ सर्वदर्शनसंग्रहे( Conjunction ), विभाग ( Disjunction ), परत्व ( Remoteness ), अपरत्व ( Nearness ), बुद्धि (Cognition ), सुख ( Pleasure ), दुःख ( Pain ), इच्छा ( Desire ), द्वेष ( Aversion ), प्रयत्न ( Effort )। जिस सूत्र में कणाद ने इनका उल्लेख किया है उसमें ‘च ( = और )' शब्द आया है, इससे सात और गुणों का भी समुच्चय ( Addition ) होता है-गुरुत्व ( Heaviness ), द्रवत्व ( Fluidity ), स्नेह ( Viscidity ), संस्कार ( Tendency ), अदृष्ट अर्थात् धर्म ( Merit ) और अधर्म ( Demerit ), शब्द ( Sound )। [ कणाद ने अपने वैशेषिक सूत्र १।११५ में सत्रह गुणों का इस प्रकार उल्लेख किया है-रूपरसगन्धस्पर्शाः संख्या परिमाणानि पृथक्त्वं संयोगविभागो परत्वापरत्वे बुद्धयः सुखदुःखे इच्छाद्वेषो प्रयत्नाश्च गुणाः । सत्रह गुण कणाद के कण्ठ से कहे गये हैं। 'च' ( भी ) का प्रयोग बतलाया है कि कुछ गुण और भी उन्हें कहने को हैं। उन सात गुणों का समुच्चय होता है। मेरी समझ में वास्तव में 'च' के द्वारा सात गुणों का समुच्चय नहीं होता। सूत्र में पृथक्-पृथक् गुणों का निर्देश किया गया हैं । प्रयत्न अन्तिम गुण है, उसी का सम्बन्ध शेष गुणों के साथ दिखलाना 'च' को अभीष्ट है। बाद में टीकाकारों ने चौबीस गुण बनाये तथा 'च' की नई व्याख्या की।] उनमें रूप से लेकर शब्द पर्यन्त जितने गुण हैं ( अर्थात् चौबीस ) उनके लक्षण हैं रूपत्व आदि की जाति । [ जिस प्रकार द्रव्यों के लक्षण में जाति द्वारा लक्षण दिया जाता है उसी प्रकार गुणों के लक्षण में भी जाति का प्रयोग होता है। ] रूपत्व-जाति वह है जो नील से समवेत हो और गुणत्व के द्वारा व्याप्त होती है । [ रसत्व, गन्धत्व आदि नातियां नील से समवेत नहीं रहतीं। ] इसी रीति से अवशिष्ट गुणों के लक्षण भी देखे जा सकते हैं । [विशेष ज्ञान के लिए तर्कसंग्रह, सिद्धान्तमुक्तावली या वैशेषिकसूत्र ही देखे जायं।] (८. कर्म आदि के भेद ) कर्म पञ्चविधम् । उत्क्षेपणापक्षेपणाकुश्चनप्रसारणगमनभेदात् । भ्रमणरेचनादीनां गमन एवान्तर्भावः। उत्क्षेपणादीनामुत्क्षेपणत्वादिजातिर्लक्षणम् । तत्रोत्क्षेपणत्वं नामोर्ध्वदेशसंयोगासमवायिकारणसमवेतकर्मत्वापरजातिः । एवमपक्षेपणत्वादीनां लक्षणं कर्तव्यम् । .. कर्म के पांच भेद हैं-उत्क्षेपण ( Throwing upwards ), अपक्षेपण ( Throwing dowwnwards), आकुंचन ( सिकुड़ना Contraction ), प्रसारण ( Expansion ) तथा गमन ( Motion ) । भ्रमण (घूमना ), रेचन ( खाली करना ) आदि कर्मों को गमन में ही समाहित कर लेते हैं । उत्क्षेपण आदि कर्मों का लक्षण है उत्क्षेपणत्व आदि को जाति । तो उत्क्षेपणत्व का अर्थ है वैसी जाति जो कर्मत्व के द्वारा व्याप्त होती है तथा ऊपरी स्थानों के साथ संयोग के असमवायी कारण ( अर्थात् कर्मविशेष ) से समवेत रहती
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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