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________________ ३०४ सर्वदर्शनसंग्रहेदास को भी प्राप्त होता है। परमेश्वर के स्वरूप में ये हैं-प्रकाश, आनन्द, स्वातन्त्र्य । यही परमतत्त्व या परमार्थ ( Ultimate Reality ) है। ये किसी भी पदार्थ के द्वारा व्याप्त नहीं।] जनशब्देनाधिकारिविषयनियमाभावः प्राशि । यस्य यस्य हीदं स्वरूपकथनं तस्य तस्य महाफलं भवति । प्रज्ञानस्यैव परमार्थफलत्वात् । तथोपदिष्टं शिवदृष्टौ परमगुरुभिर्भगवत्सोमानन्दनाथपाद : २. एकवारं प्रमाणेन शास्त्राद्वा गुरुवाक्यतः। ___ज्ञाते शिवत्वे सर्वस्थ प्रतिपत्त्या दृढात्मना ॥ ४. करणेन नास्ति कृत्यं क्वापि भावनयापि वा। ___ ज्ञाते सुवर्णे करणं भावनां वा परित्यजेत् ।। इति । 'जन' शब्द से अधिकारी बनने के विशेष नियमों का अभाव व्यक्त होता है। [जन का अर्थ है सामान्य व्यक्ति । अन्य दर्शनों में जहां शास्त्र सुनने के लिए कड़े-कड़े नियम बनाये गये हैं, वहीं प्रत्यभिज्ञा का द्वार जनसाधारण के लिए खुला है । मुमुक्षु कोई भी हो, प्रत्यभिज्ञा-शास्त्र सुने । भस्म में स्नान, व्रत आदि किसी नियम की आवश्यकता नहीं ।' ] जिस किसी व्यक्ति को महेश्वर के इस स्वरूप का ज्ञान कराया जाय, महान् फल की प्राप्ति होती है। कारण यह है कि प्रकृष्ट ज्ञान (प्रत्यभिज्ञा ) से ही परमार्थ का फल प्राप्त होता है। [ महेश्वर के स्वरूप का कथन इस प्रकार होता है-'यह सब कुछ महेश्वर ही है', जिस व्यक्ति को ऐसी बात बतलायी जाती है वह जान लेता है कि 'मैं ही महेश्वर हैं'। इस अद्वैत तत्त्व का साक्षात्कार कर लेना ही परमार्थ है, महाफल है जो मुमुक्षुओं को प्राप्त होता है। ____शिवदृष्टि ‘नामक अपने ग्रन्थ में परमगुरु ( शास्त्र-प्रवर्तक ) भगवान् पूज्य श्री सोमानन्दनाथ ने यही कहा है-'जब एक बार प्रमाणों के द्वारा, शास्त्र ( प्रत्यभिज्ञा ) के द्वारा या गुरुओं की वाणी के द्वारा दृढ़ आत्मा से प्रतिपतिपूर्वक ( विश्वासपूर्वक ) सर्वत्र १. ईश्वरप्रत्यभिज्ञाविमर्शिनी ( २१२७६ ) से सूचित होता है कि शास्त्राध्ययन के लिए जाति-पाति का कोई बन्धन नहीं। फिर भी अध्ययन के लिए छह वैदिक दर्शनों और वेदाङ्गों का अध्ययन पहले से हो, क्योंकि इस दर्शन में सबों की आलोचना है । इसके अतिरिक्त भी कहा हैयोऽधीती निखिलागमेषु पदविद्यो योगशास्त्रश्रमी, ___ यो वाक्यार्थसमन्वये कृतरतिः श्रीप्रत्यभिज्ञामृते । यस्तर्कान्तरविश्रुतश्रुततया द्वैताद्वयज्ञानवित् सोस्मिन्स्यादधिकारवान्कलकलप्रायः परेषां रवः ॥ ( Dr. K. C. Pandey, Abhinavagupta, pp. 171-2.)
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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