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प्रत्यभिशा-दर्शनम्
स्वात्मोपभोग्यतां निरर्गलां गमयित्वा । तदनेन विदितवेद्यत्वेन परार्थशास्त्रकरणेऽधिकारो दर्शितः । अन्यथा प्रतारणमेव प्रसज्येत ।
ज्ञान के विषय में कोई
है
कथंचित् का यह अर्थ है— गुरु जो परमेश्वर से भिन्न नहीं है, उसके दोनों चरणकमलों की आराधना करके; यह आराधना भी परमेश्वर के स्वीकार करने पर ही होती है । आसाद्य का अर्थ है -आ अर्थात् चारों ओर से या पूर्णरूप से पाकर ( /सद् + णिच् ), या निर्बंन्ध रूप से अपनी आत्मा के उपभोग करने की योग्यता पाकर । [ अभिप्राय यह है कि आत्मा को बन्धनरहित उपभोग प्राप्त होता है । यह उपभोग है प्रत्यभिज्ञा के प्रकाशन और परोपकार के द्वारा प्राप्त मानसिक सन्तोष । अभिनवगुप्त आत्मा की उपभोग्यता या सन्तुष्टि प्राप्त कर चुके हैं इसीलिए प्रत्यभिज्ञा - शास्त्र लिखने का उपक्रम कर रहे हैं । संतोष तभी होगा जब जानने लायक सारी वस्तुए जान चुके हों, बन्धन नहीं हो ।] इस प्रकार इस शब्द से यह दिखाया जाता जान लेने के बाद ही परोपयोगी ( पदार्थ ) शास्त्र निर्माण करने का नहीं तो ) ज्ञान के अभाव में ( लोगों को ठगना ही भर हो सकता है । [ यह आशय हैराजा के द्वारा अधिकार मिल जाने पर नौकर अपनी नौकरी के अधिकार का इच्छापूर्वक उपभोग करता है । सूत्रकार ने भी अपनी इच्छा के अनुसार ईश्वर की दासता प्राप्त की है जो उनके उपभोग के योग्य है और जिसमें कहीं कोई रुकावट नहीं । वे सारे ज्ञेय पदार्थ जान चुके हैं, इससे अपने अधिकार का उपभोग अच्छी तरह कर सकते हैं, - परोपकार का काम कर सकते हैं, प्रत्यभिज्ञा -शास्त्र लिख सकते हैं इत्यादि । जो अपना अधिकार नहीं जानते, वे केवल दूसरों को ठगते हैं, वास्तव में उन्हें ग्रन्थ लिखना नहीं चाहिए । यदि ग्रन्थ लिखते हैं तो गलत बातों का भी तो प्रतिपादन कर सकते हैं और इस प्रकार वे शास्त्र पढ़नेवालों को मार्ग से भ्रष्ट करेंगे । ]
कि सारी ज्ञेय वस्तुएं अधिकार मिलता है ।
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मायोत्तीर्णा अपि महामायाधिकृता विष्णुविरिञ्च्याद्या यदीयैश्वर्यलेशेन ईश्वरीभूताः स भगवाननवच्छिन्नप्रकाशानन्दस्वातन्त्र्यपरमार्थो महेश्वरः । तस्य दास्यम् । दीयतेऽस्मै स्वामिना सर्वं यथाभिलषितमिति दासः । परमेश्वरस्वरूपस्वातन्त्र्यपात्रमित्यर्थः ।
विष्णु, विरचि (ब्रह्म) आदि देवता यद्यपि मायां को पार कर चुके हैं, परन्तु महामाया ( अनन्त माया ) के अधीन हैं । जिस शक्ति के ऐश्वर्य के केवल लेश ( अल्पांश ) से ये देवता ईश्वर के रूप में माने जाते हैं वही भगवान् ( ऐश्वर्य से युक्त ) महेश्वर हैं जो असीम ( अनवच्छिन्न) प्रकाश, आनन्द तथा स्वातन्त्र्य के रूप में है तथा परमतत्त्व भी यही है । उस महेश्वर की दासता ( पाकर... ) । दास उसे कहते हैं जिसे स्वामी की ओर से सारी अभीष्ट वस्तुएं दी जाती हैं । दूसरे शब्दों में यह कहेंगे कि दास परमेश्वर के ही स्वरूप -- स्वतंत्रता - का पात्र होता है । [ परमेश्वर की स्वतंत्रता का थोड़ा अंश