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सर्वदर्शनसंग्रहे
तन्त्रालोक, तन्त्रसार, परमार्थसार, ईश्वर- प्रत्यभिज्ञाविर्माषनी, ईश्वर-प्रत्यभिज्ञा-विवृतविमर्शनी इत्यादि । अभिनवगुप्त पर विशेष ज्ञान के लिए डा० कान्तिचन्द्र पाण्डेय की पुस्तक ( चौखम्बा से प्रकाशित ) देखें । अभिनव के शिष्य क्षेमराज ( ९७५-१०५० ई० ) ने भी गुरु की तरह ही तन्त्र, काव्यशास्त्र और शेवदर्शन पर ग्रन्थ लिखे । शैवदर्शन पर स्पन्द- सन्दोह, स्पन्दनिर्णय, प्रत्यभिज्ञाहृदय, शिवसूत्रविर्माशिनी आदि इनके विख्यात ग्रन्थ हैं । इनके शिष्य योगराज ( १०७५ ई० ) ने अभिनव के परमार्थ-सार पर विवृति लिखी । तन्त्रालोकपर सर्वप्रथम टीका सुभटदत्त ( १२०० ई० ) ने लिखी थी यद्यपि जयरथ ( १२२५ ई० ) की सुविशाल 'टीका विवेक' के समक्ष उसकी कीर्ति मन्द पड़ गई । भास्करकण्ठ ( १७५० ई० ) ने अभिनव की प्रत्यभिज्ञाविर्माशनी पर एकमात्र उपलब्ध टीका लिखी जिसका नाम भास्करी है । इसके अतिरिक्त इन्होंने १४वीं शती में किसी स्त्री के द्वारा प्राचीन काश्मीरी भाषा में लिखित लल्ला वाक्य संस्कृत में अनुवाद किया और योगवासिष्ठ पर टीका लिखी । वरदराज ने वसुगुप्त के शिवसूत्रों पर वार्तिक लिखा है ।
इस प्रकार काश्मीरी शैव दर्शन में विपुल साहित्य है जो अपने आलोडन के लिए विद्वानों का निरन्तर आवाहन करता है ।
( ३. प्रथम सूत्र की व्याख्या )
तत्रेदं प्रथम सूत्रम् -
२. कथंचिदासाद्य महेश्वरस्य दास्यं जनस्याप्युपकारमिच्छन् । समस्तसम्पत्समवाप्तिहेतुं तत्प्रत्यभिज्ञामुपपादयामि ॥ इति ।
उनमें यही प्रथम सूत्र है ( वास्तव में प्रत्यभिज्ञासूत्र पर अभिनवगुप्त की टीका का मंगलाचरण है ) - ' किसी प्रकार महेश्वर के दास का पद पाकर और लोगों का उपकार करने की इच्छा से सारी सम्पत्तियों की प्राप्ति करनेवाले प्रत्यभिज्ञा - शास्त्र का मैं आरम्भ कर रहा हूँ ।'
रूप में उन्होंने संसार का बड़ा
आरम्भ में ही यह श्लोक दिया
विशेष - अभिनवगुप्त बहुत बड़े तांत्रिक भी थे और उनका महेश्वर की दासता स्वीकार करना सर्वथा उचित है । तान्त्रिक और संन्यासी के भारी कल्याण किया था । प्रत्यभिज्ञासूत्र पर विमर्शनी के गया है । यह स्मरणीय है कि नकुलीश - पाशुपतदर्शन में जहाँ उपहास किया गया है वहाँ एक माहेश्वर ईश्वर की दासता प्राप्त अनुभव करते हैं तथा पा लेने पर गर्वपूर्वक इसका उल्लेख करते हैं । की व्याख्या में सारे दर्शन का विपुलांश समझाया जायगा ।
वैष्णवों की ईश्वर - दासता का
करने में कठिनाई का
इसके बाद इसी सूत्र
कथविदिति - परमेश्वराभिन्नगुरुचरणारविन्दयुगलसमाराधनेन परमेश्वरघटितेन एवेत्यर्थः । आसाद्येति - आ समन्तात्परिपूर्णतया सादयित्वा,