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________________ प्रत्यभिज्ञा-दर्शनम् ३०१ विवरण ग्रन्थों में ये हैं-सूत्र, वृत्ति, विवृति, लघुविमर्शिनी, बृहद्विमशिनी । प्रथम तीन की रचना उत्पल ने की और अन्तिम दोनों अभिनवगुप्त की रचनाएं हैं। इस प्रकार संक्षेपतः दो आचार्य ही प्रत्यभिज्ञा दर्शन के सर्वस्व हैं । डा० कान्तिचन्द्र पाण्डेय ( अभिनवगुप्त-ऐतिहासिक और दार्शनिक अध्ययन, पृ० ८३ ) का कहना है कि दोनों के पूर्वज काश्मीर के बाहर के निवासी थे। सोमानन्द की चौथी पीढ़ी के पूर्वज इसे काश्मीर में अष्टम शतक के मध्य में ले आये थे तथा अभिनवगुप्त को ललितादित्य नामक काश्मीर नरेश प्रायः ७४० ई० के बाद काश्मीर ले गये थे। तब से दोनों के पूर्वज वहीं बस गये थे । उक्त दोनों आचार्यों के पूर्व त्रिक का प्रवर्तन वसुगुप्त (८२५ ई० ) ने किया था जिनसे स्पन्द-शाखा का आरम्भ होता है। वसुगुप्त ( ८२५ ई० ) ने अपने 'शिवसूत्र' में तांत्रिक शैवमत को अद्वैतवादी रूप दिया । राजतरंगिणी ( ५।६६ ) में इन्हें सिद्ध कहा गया है तथा इनके शिष्य कल्लट को अवन्तिवर्मा ( ८५५-८८३ ई० ) का समकालिक माना गया है। क्षेमराज ने शिवसूत्रविमशिनी में कहा है कि वसुगुप्त को स्वप्न हुआ था कि वह महादेव गिरि के एक विशाल शिलाखण्ड पर उत्कीर्ण शिवसूत्रों का उद्धार करे । ये ७७ शिवसूत्र ही इस दर्शन के मूल हैं जो तीन खण्डों में बटे हैं । इसने और भी कई पुस्तकें लिखीं, जैसे--स्पन्दकारिका, स्पन्दामृत, गीता की वावी टीका तथा सिद्धान्त-चन्द्रिका । कल्लट ( ८५५ ई० ) ने स्पन्दकारिका पर स्पन्दसर्वस्व टीका लिखी तथा तत्वार्थचिन्तामणि और स्पन्दसूत्र भी इसके लिखे ग्रन्थ हैं । रामकण्ठ ( ९५० ई० ) ने स्पन्दविवरणसारमात्र नामक ग्रन्थ लिखा जो स्पन्दकारिका की टीका है । भास्कराचार्य ( अभिनव के समकालिक ) के साथ स्पन्द शाखा का इतिहास समाप्त होता है यद्यपि अभिनव के बाद भी कुछ-न-कुछ टीकाएं लिखी गई । प्रत्यभिज्ञा शाखा का प्रवर्तन सोमानन्द ( ८५० ई० ) ने अपनी शिवदृष्टि' के द्वारा किया। इसमें सात अध्यायों में ७०० श्लोक हैं। स्पन्द-शाखा में प्रचलित रूढ़िवाद के विरुद्ध इसमें तर्कवाद की प्रतिष्ठा हुई है। इनके पुत्र और शिष्य उत्पल ( ९०० ई०) थे जिन्होंने ईश्वरप्रत्यभिज्ञा-कारिका, ईश्वरप्रत्यभिज्ञा-वृत्ति, ईश्वर-प्रत्यभिज्ञा-टीका, स्तोत्रावली आदि प्रायः ११ ग्रन्थ लिखे। प्रत्यभिज्ञा का दार्शनिक विवेचन सर्वप्रथम इन्होंने ही किया । लक्ष्मणगुप्त उत्पल के पुत्र और शिष्य भी थे जिन्हें अभिनवगुप्त (९५०-१०२० ई०) के समान बहुमुखी प्रतिभावाले शिष्य को उत्पन्न करने का गौरव प्राप्त है। अभिनवगुप्त का नाम दर्शन और साहित्य दोनों ही क्षेत्रों में प्रसिद्ध है। इनके पिता का नाम नरसिंहगुप्त था जिनसे इन्होंने व्याकरण पढ़ा था। ____अभिनवगुप्त ने प्रायः पचास ग्रन्थ विभिन्न विषयों के लिखे। साहित्यिक ग्रन्थों में ध्वन्यालोक की टीका लोचन तथा नाटयशास्त्र की टीका अभिनव-भारती अत्यन्त प्रसिद्ध हैं । त्रिक-दर्शन पर इनके ये सुप्रसिद्ध ग्रन्थ हैं-मालिनी-विजयवार्तिक, परात्रिशिका विवृति,
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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