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________________ प्रत्यभिज्ञा- दर्शनम् ३०५ स्थित शिव-तत्त्व का ज्ञान हो जाता है तब न तो किसी करण ( प्रमाणादि साधन ) का कोई काम ( आवश्यकता ) है और न भावना का ही । सुवर्ण का ज्ञान हो जाने पर करण और भावना को लोग छोड़ ही देते हैं ।' विशेष - भावना का अर्थ है - पर्यालोचना या विशेष गुणों का चिन्तन | इस स्थान पर 'मैं शिव हूँ' इस प्रकार का निरन्तर चिन्तन करना भावना है । जब शिव का सर्दस्वरूप में ज्ञान हो जाता है तब उसके ज्ञान के प्रमाणों की आवश्यकता नहीं होती और न उक्त चिन्तन या भावना व्यापार की ही । जब तक 'यह सुवर्ण है' इस रूप में सुवर्ण का ज्ञान नहीं हो जाता तब तक उसके ज्ञान के साधन कसौटी - पत्थर ( touch-stone ) आदि चीजें ले आते हैं । कोई व्यक्ति किसी चीज को अ-सुवर्ण समझकर त्यागना चाहता हो और हम उसे कहें कि यह सुवर्ण के ही रूप में भावनीय है तो यह भावना हुई । सुवर्णज्ञान हो जाने पर न तो कसौटी की जरूरत है और न सुवर्ण - भावना की । रोगमुक्ति के बाद औषधि का क्या काम ? ( ३ क. 'अपि' और 'उप' शब्दों के अर्थ ) अपिशब्देन स्वात्मनस्तदभिन्नतामाविष्कुर्वता पूर्णत्वेन स्वात्मनि परार्थ सम्पत्त्यतिरिक्तप्रयोजनान्तरावकाशश्च पराकृतः । परार्थश्च प्रयोजनं भवत्येव । तल्लक्षणयोगात् । न ह्ययं देवशापः 'स्वार्थ एव प्रयोजनं न परार्थ' इति । अत एवोक्तमक्षपादेन - 'यमर्थधिकृत्य प्रवर्तते तत्प्रयोजनम्' (गौ० सू० १।१।२४ ) इति । 'अपि' शब्द के द्वारा, अपनी आत्मा की अभिन्नता उस महेश्वर से स्थापित करनेवाले पूर्णत्व के कारण, अपनी ही आत्मा में परोपकार का कार्य सम्पादित करने के अतिरिक्त किसी अन्य प्रयोजन की सम्भावना समाप्त हो जाती है । [ अभिप्राय यह है कि आत्मा और महेश्वर एक ही है । अभिनवगुप्त सभी लोगों को महेश्वर के समीप पहुँचाना चाहते हैं ( उपकार = समीप ले जाना ) अर्थात् दास का पद देना चाहते हैं । स्वयं तो दास्य पा ही चुके हैं, लोगों को भी देना चाहते हैं । इस प्रकार 'अपि' के द्वारा उनकी अपनी प्रत्यभिजा या साक्षात्कार का अर्थ समझा जाता है । दास्य - प्राप्ति के लिए सूत्रकार ने परमेश्वर के साथ अपनी अभिन्नता का साक्षात्कार किया है—उस अर्थ की प्राप्ति इस 'अपि' के द्वारा हो जाती है । फलत: अब सूत्रकार को केवल परोपकार ही सूझता है । अब स्वार्थ की भावना तो रही नहीं — इसलिए परोपकार के अतिरिक्त सारे प्रयोजनों का खण्डन ही 'अपि ' के द्वारा होता है । 'अपि' से एक ही साथ कई चीजें ज्ञात हो जाती हैं । ] [ शास्त्र का ] प्रयोजन परोपकार तो हो ही सकता है क्योंकि परोपकार के लक्षणां की प्राप्ति प्रस्तुत स्थल में हो जाती । यह किसी देवता का शाप नहीं है कि मनुष्य का प्रयोजन जब होगा तब स्वार्थ ही, परमार्थ नहीं । [ बहुत से व्यक्ति निस्वार्थ भाव से पर २० स० सं०
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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