________________
६६८
सर्वदर्शनसंग्रहेमानना पड़ेगा। यदि संघात को स्वाभाविक या यादृच्छिक मानेंगे तो यह दोष नहीं आ सकेगा, क्योकि शरीर के अवयवों से आत्मा के अवयवों का कोई उच्छेदात्मक सम्बन्ध नहीं रहेगा।]
दूसरा विकल्प इसलिए ठीक नहीं है कि अनेक अवयव एक दूसरे से सदा एक तरह से ही मिले रहेंगे, ऐसा कोई नियम नहीं देखा जाता । [ यदि अवयवों में संश्लेष होना स्वाभाविक होता तो चूंकि वस्तु अपने स्वभाव से कभी च्युत नहीं होती इसलिए छोटा अवयव भी कभी पृथक् नहीं होता। सभी अवयव एक रूप में ही परस्पर मिले हुए रहते । परन्तु वे जैन ही यह नहीं मानेंगे । बचपन आदि अवस्थाओं के भेद के या दूसरे जन्म में शरीर के भेद से जीव उतना ही बड़ा हो जाता है इसे वे स्वीकार करते हैं-अतः अवयवों का संश्लेष बदलता रहता है । जीवन बढ़ता-घटता है।]
तीसरा विकल्प स्वीकार्य नहीं है, क्योंकि यदि मनमाने ढंग से संश्लेष ( Conjunction ) होता है तो इसी तरह विश्लेष ( Disjunction ) भी तो होगा। इसलिए सुख से ( निश्चिन्त ) पड़े हुए जीव अकस्मात् अचेतन हो जायंगे [ जब कि उनका विश्लेष होगा । जब सब कुछ मनमाना ही है तो क्या पता कि कब विश्लेष हो जाय-अवयवों का संघात टूट जाय, इसलिए जीव पर अचेतन की आपत्ति कभी भी आ सकती है । परन्तु वास्तव में जीव को चेतन सदा मानना चाहिए । ] ___ न चाणुपरिमाणत्वमात्मनः शङ्कनीयम् । 'स्थूलोऽहम्' 'दीर्घोऽहम्' इति प्रत्ययानुपपत्तेः।
[अब पूर्वपक्षी सोचते हैं कि आत्मा को अणु के परिमाण में मानकर हम प्रादेशिकता की सिद्धि कर सकते हैं । पर शंकर इस सिद्धान्त को ही काट देते हैं । वे कहते हैं कि ] आत्मा अणु के परिणाम में ( Atomic ) है ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए। [ उसे स्वीकार करने से आपको लाभ भले ही हो कि इसकी प्रादेशिकता की सिद्धि कर लें ] परन्तु 'मैं मोटा हूँ', 'मैं लम्बा हूँ' ऐसी प्रतीतियों की सिद्धि ( Explanation ) नहीं की जा सकती।
(७. विज्ञानवादी बौद्धों का खण्डन-विज्ञान आत्मा ) न च विज्ञानात्मभाषिणां नैष दोषः। विशुद्धसावयवत्वाभावादिति गणनीयम्। यः सुषुप्तः सोऽहं जागर्मोति स्थिरगोचरस्याहमुल्लेखस्य क्षणभङ्गिविज्ञानगोचरत्वे अस्मिस्तबुद्धिरूपमिथ्याध्यासस्य तदवस्थानात् । . ऐसा नहीं समझें कि विज्ञान को ही आत्मा माननेवाले [ बौद्धों के ] मत में यह दोष नहीं लगता । [ विज्ञानवादी लोग विज्ञान को ही आत्मा मानते हैं । उसकी प्रतीति भी 'अहम्' के रूप में ही होती है । किन्तु यहाँ 'अहम्' देहादि के आकार में रहता है, क्योंकि