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________________ जैमिनि-दर्शनम् ४४९ न ताववाद्यः । विवादपदं वेदाध्ययनमर्थावबोधहेतुरध्ययनत्वाद, भारताध्ययनवत्-इत्यनुमानेन विध्यनपेक्षतया प्राप्तत्वात् । अस्तु तर्हि द्वितीयो यथा नखविदलनादिना तण्डुलनिष्पत्तिसम्भवात् पाक्षिकोऽवघातोऽवश्यं कर्तव्य इति विधिना नियम्यते, तथा लिखितपाठेनार्थज्ञानसम्भवात्पाक्षिकमध्ययनं विधिना नियम्यत इति चेत् । [ पूर्वपक्षी कहते हैं कि ] इनमें पहला विकल्प तो माना नहीं जा सकता, क्योंकि निम्नलिखित अनुमान से यह सिद्ध हो जायगा कि किसी विधि की अपेक्षा न रखते हुए भी यह ( वेदाध्ययन ) [ उस अर्थावबोध के साधन के रूप में ] प्राप्त होगा 'प्रस्तुत वेदाध्ययन अर्थबोध करने के लिए है, क्योंकि यह एक अध्ययन है, जैसे महाभारत का अध्ययन [ अर्थ-ज्ञान के लिए होता है ] ।' [अभिप्राय यह है कि यदि अपूर्व-विधि मानकर आप (सिद्धान्ती) लोग, वेदाध्ययन अर्थ-ज्ञान के लिए है, ऐसा सिद्ध करते हैं, तो विधि की कोई आवश्यकता ही नहीं है । महाभारत के अध्ययन की तरह वेद का अध्ययन भी लोग बिना किसी विधि के अर्थ-ज्ञान के लिए ही कर लेंगे।] अच्छा, दूसरा विकल्प लीजिये [ कि यह नियमविधि है ] । जैसे नखों के द्वारा विदलन ( नाखून से दानों को छीलना ) आदि (= अवघात ) से चावल की निष्पत्ति हो सकती है, किन्तु पाक्षिक रूप से ( एक विशेष उपाय ) अवघात का ही प्रयोग आवश्यक है, इस विधि के द्वारा नियमन ( Restriction ) किया जाता है [कि अन्य उपायों से तण्डुल-निष्पत्ति नहीं की जाय ] । उसी प्रकार लिखित पाठ से भी अर्थ के ज्ञान की सम्भाघना होने से पाक्षिक रूप से ( एक विशेष उपाय ) अध्ययन को ही विधि के द्वारा नियमित किया जाता है। [ तात्पर्य यह है कि गुरु के उपदेश को छोड़कर केवल लिखित पाठ से ही अर्थ-ज्ञान के लिए कोई प्रवृत्त हो जाय तो अध्ययन अप्राप्त हो जायगा, जिसका विधान करना चाहिए। इसलिए पाक्षिक रूप से जो अध्ययन अप्राप्त है, उसी के नियमन के लिए यह विधि है।] नेतच्चतुरस्त्रम् । दृष्टान्तवार्टान्तिकयोवधर्म्यसम्भवात् । अवघातनिष्पनरेव तण्डुलः पिष्टपुरोडाशादिकरणेऽवान्तरापूर्वद्वारा दर्शपूर्णमासौ परमापूर्वमुत्पादयतो नापरथा । अतोऽपूर्वमवघातस्य नियमहेतुः। प्रकृते लिखितपाठजन्येनाध्ययनजन्येन वाऽर्थावबोधेन त्वनुष्ठानसिद्धरध्ययनस्य नियमहेतुर्नास्त्येव । तस्मादर्थावबोधहेतुविचारशास्त्रस्य वैधत्वं नास्तीति । पक्षी कहते हैं कि ] आपका यह कहना ठीक नहीं (चतुरस्र = अच्छा ), कारण यह है कि दृष्टान्त ( Instance ) तथा प्रस्तुत वस्तु (दाष्टान्तिक The object for २९० .
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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