________________
प्रत्यभिज्ञा-दर्शनम्
( ११. उपसंहार) तदुक्तं चतुर्थे विमर्शे२१. तैस्तरप्युपयाचितरुपनतस्तस्याः स्थितोऽस्यन्तिके ।
कान्तो लोकसमान एवमपरिज्ञातो न रन्तुं यथा । लोकस्यैष तथानवेक्षितगुणः स्वात्मापि विश्वेश्वरो नवायं निजवैभवाय तदियं तत्प्रत्यभिज्ञोदिता ॥
(ई०प्र० ४।२।२) इति । अभिनवगुप्तादिभिराचार्यविहितप्रतानोऽप्ययमर्थः संग्रहमुपक्रममाणरस्माभिविस्तरभिया न प्रतानित इति सर्व शिवम् ॥
इति श्रीमत्सायणमाधवीये सर्वदर्शनसंग्रहे प्रत्यभिज्ञादर्शनम् ॥
जैसा कि चतुर्थ विमर्श में कहा-'विभिन्न प्रकार की प्रार्थनाओं के कारण [ जो नायक नायिका के ] पास आ गया है, उसके पास ही खड़ा भी है, किन्तु बिना पहचाने हुए वह ( नायिका ) अपने प्रिय नायक को दूसरे लोगों के समान ही साधारण व्यक्ति समझ लेती है तथा उसके साथ रमण नहीं करती। उसी प्रकार इस संसार में लोगों की आत्मा में यदि विश्वेश्वर ( महेश्वर ) के गुणों को जाना नहीं जा सका तो यह ( महेश्वर ) अपने पूर्ण वैभव ( ऐश्वर्य) को नहीं पा सकता । यही कारण है कि इस प्रत्यभिज्ञा-दर्शन की व्याख्या की जाती है । ( ईश्वरप्रत्यभिज्ञाविमर्श ४।२।२)। ___अभिनवगुप्त तथा दूसरे आचार्यों ने इस दर्शन का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है, किन्तु - हम तो यहाँ केवल संकलन ( सारांश Summary ) कर रहे हैं इसलिए विस्तार के भय
से ग्रन्थ को आगे नहीं बढ़ा रहे हैं । इस प्रकार सब कुछ शिव ( कल्याणकारी ) हो।। ___ इस प्रकार श्रीमान् सायण-माधव के सर्वदर्शनसंग्रह में प्रत्यभिज्ञा-दर्शन [ समाप्त हुआ ] . इति बालकविनोमाशङ्करेण रचितायां सर्वदर्शनसंग्रहस्य प्रकाशाख्यायां
व्याख्यायां प्रत्यभिज्ञादर्शनमवसितम् ॥
२१ स० सं०