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________________ ३२० सर्वदर्शनसंग्रहे आत्मा को अपने स्वरूप का साक्षात्कार करना आवश्यक है । [ यही कारण है कि प्रत्यभिज्ञा दर्शन के द्वारा आत्मा को एकत्व ज्ञान कराया जाता है । ] अब यह प्रश्न है कि वह अर्थक्रिया जो प्रमाता को विश्राम प्रदान करके आनन्द देनेवाली है, वह प्रत्यभिज्ञान ( साक्षात्कार Knowledge ) के बिना तो अदृष्ट ही रहेगी, प्रत्यभिज्ञान हो जाने पर उसे देख लेते हैं ऐसा कहीं किसी ने देखा है क्या ? ( यह कैसे जानते हैं ? ) इसका यह उत्तर होगा । कोई कामिनी किसी नायक के गुण-समूह को केवल सुनकर उससे प्रेम करने लगती है, वह मदनाग्नि से पीड़ित होकर विरहवेदना को सहने में असमर्थ हो जाती है । किसी प्रकार मदन - लेख ( प्रेम-पत्र Love letter ) भेजकर अपनी अवस्था का निवेदन उस नायक से करती है। यही नहीं, झटपट वह उसके पास दौड़ भी जाती है और उसे देखने लगती है । किन्तु उसके गुणों के परामर्श ( प्रत्यभिज्ञा Recognition ) के अभाव में वह स्त्री उस नायक को साधारण आदमी की तरह ही देखती है । फल यह होता है कि उसके हृदय को वह ठीक नहीं लगता ( वह आनन्द या संतोष नहीं पाती ) । लेकिन जब कोई दूती आकर उसे अपने वाक्यों के द्वारा नायक के गुणों की पहचान करा देती है तब तो वह नायिका तुरत ही पूर्णरूप से प्रेम करने लगती है । [ इस दृष्टान्त में यह दिखाया गया कि बिना पहचान कराये कोई किसी में रुचि नहीं ले सकता । इसी दृष्टान्त से यह स्पष्ट होता है कि प्रत्यभिज्ञा-शास्त्र के द्वारा ही कोई ईश्वर को पहचान सकता है । ] एवं स्वात्मनि विश्वेश्वरात्मना भासमानेऽपि । तन्निर्भासनं तदीयगुणपरामर्शविरहसमये पूर्णभावं न सम्पादयति । यदा तु गुरुवचनादिना सर्वज्ञत्व सर्वकर्तृत्वातिलक्षणपरमेश्वरोत्कर्षपरामर्शो जायते तदा तत्क्षणमेव पूर्णा त्मतालाभः । उसी तरह यद्यपि अपनी आत्मा में विश्वेश्वर की आत्मा ( स्वरूप ) का आभास होता है, किन्तु यह आभास भी ईश्वर के गुणों को पहचान नहीं होने की स्थिति में पूर्णभाव ( पूरा सन्तोष, पूर्णत्व ) नहीं दे सकता । लेकिन जब गुरु के वचन आदि से सब कुछ जाननेवाले, सब कुछ उत्पन्न करनेवाले तथा अन्य गुणों से युक्त परमेश्वर के उत्कृष्ट गुणों की प्रत्यभिज्ञा होती है उसी समय पूर्णत्व की प्राप्ति हो जाती है । विशेष -- प्रत्यभिज्ञा- दर्शन की निरर्थकता का खण्डन हो रहा है । यद्यपि आत्मा में ईश्वर का स्वरूप निसर्गतः आभासित होता है तथापि उसकी पहचान करने के लिए कोई माध्यम ( Mediator ) तो हो । गुरु को बातों से प्रत्यभिज्ञा-दर्शन का अध्ययन करके परमेश्वर को पहचान लें तभी आत्मसाक्षात्कार या मोक्ष हो सकता है। इसलिए प्रत्यभिज्ञादर्शन की आवश्यकता रहेगी ही । इसके बिना मूलतः और परमात्मा एक होने पर भी एकसे नहीं लगेंगे ।
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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