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________________ प्रत्यभिज्ञा-दर्शनम् ३१९ अंकुर आदि आते हैं; दूसरी [ आन्तरिक ( Internal ) ] जिससे ज्ञाता को विश्राम मिल जाने के कारण अपूर्व आनन्द मिलता है तथा जो प्रीति, सन्तोष आदि के रूप में प्रकट होती है । [ जब बीज अंकुर उत्पन्न करता है तब भी एक अर्थक्रिया ( सफल कार्य ) होती है, किन्तु यह बाह्य जगत् से बंधी होने के कारण बाह्य अर्थक्रिया है । जब पुत्रजन्म का समाचार सुनने पर आनन्द उत्पन्न होता है तब आभ्यन्तर अर्थक्रिया होती है - यह क्रिया सफल हुई किन्तु अन्तर्जगत में । ज्ञाता जीव जब बाहरी - भीतरी कामों से छुट्टी पा लेता है तब इससे उत्पन्न चमत्कार या आनन्द आन्तरिक क्रिया का सबसे अच्छा उदाहरण है । ] उनमें पहली अर्थक्रिया को तो प्रत्यभिज्ञा ( साक्षात्कार, ज्ञान ) को आवश्यकता नहीं, किन्तु दूसरी ( आन्तरिक ) अर्थक्रिया को तो ज्ञान की अनिवार्य आवश्यकता है । [ पूर्वपक्षियों ने जो बीज और अंकुर को शिखण्डी बनाकर खड़ा किया है वह वास्तव में बाह्य अर्थक्रिया का उदाहरण है। बीज ज्ञात रहे या अज्ञात, उसका फल मिल ही जायगा, 'अंकुर उत्पन्न हो जायगा' ? | डाक्टर के यहाँ ली गई दवा ज्ञात रहे या अज्ञात, उसकी अर्थक्रिया ( रोगनिवृत्ति ) होकर रहेगी। आप जानकर विष खायें या अनजाने, इसका फल मिलकर रहेगा । निष्कर्ष यह है कि बाह्य अर्थक्रिया को प्रत्यभिज्ञा की आवश्यकता नहीं है । रहे या नहीं रहे- दोनों स्थितियों में फल मिलेगा । किन्तु, पुत्रजन्म की बात सुनने पर ही, कार्य में लगे हुए मन को भी तुरत विरत करके कुछ देर तक आनन्द नहीं मिल सकता । इस प्रकार, यह सिद्ध हुआ कि आन्तरिक अर्थक्रिया उत्पादक का प्रत्यभिज्ञान ( Knowledge ) होने पर ही उत्पन्न होती है । आत्मा का साक्षात्कार भी आन्तरिक अर्थक्रिया ही है जिसमें ज्ञान होने पर ही फल मिल सकता है । यही सिद्ध किया जायगा । ] 1 इहाप्यहमीश्वर इत्येवंभूतचमत्कारसारा परापरसिद्धिलक्षणजीवात्मकत्वशक्तिविभूतिरूपार्थक्रियेति स्वरूपप्रत्यभिज्ञानमपेक्षणीयम् । ननु प्रमातृविश्रान्तिसाराऽर्थक्रिया प्रत्यभिज्ञानेन विना अदृष्टा सती तस्मिन्दृष्टेति क्व दृष्टम् ? अत्रोच्यते-- नायक गुणगणसंश्रवणप्रवृद्धानुरागा काचन कामिनी मदनविह्वला विरहक्लेशमसहमाना मदनलेखावलम्बनेन स्वावस्था निवेदनानि विधत्ते । तथा वेगात्तन्निकटमटन्त्यपि तस्मिन्नवलोकितेऽपि तदवलोकनं तदीयगुणपरामर्शाभावे जनसाधारणत्वं प्राप्ते हृदयङ्गमभावं न लभते । यदा तु द्वतीवचनात् तदीयगुणपरामर्शं कराति तदा तत्क्षणमेव पूर्णभावमभ्येति । यहाँ भी ( प्रत्यभिज्ञा-दर्शन में ), 'मैं ईश्वर हूँ' इस प्रकार के आनन्द से परिपूर्ण, परसिद्धि ( मोक्ष ) और अपरसिद्धि ( अभ्युदय ) के लक्षण से युक्त, जीवात्मा के साथ [ महेश्वर की ] एकता रूपी शक्ति ( ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति ) की विभूति ( आनन्द ) के रूप में अर्थक्रिया प्राप्त होती है ( अर्थात् यह अर्थक्रिया भी आन्तरिक ही है ), इसलिए
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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