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________________ सर्वदर्शनसंग्रहे यह आशय है-प्रत्यभिज्ञा-दर्शन की यह मान्यता स्पष्ट है कि ईश्वर अपनी 'बहु स्याम्' की इच्छा से सम्पूर्ण जगत् के रूप में स्वयं ही आविर्भूत होता है। इस प्रकार जीव तो परमेश्वर से अभिन्न है ही, पृथ्वी आदि प्रमेय पदार्थ भी ईश्वर से अभिन्न ही हैं। किसी में कोई भेद-भाव नहीं। परिणाम यह होगा कि प्रमेय (पृथ्वी आदि पदार्थ) और प्रमाता ( जीव ) में भी एकता या अभिन्नता हो जायगी। जीव के दोनों भेद ( बद्ध और मुक्त ) एक ही प्रकार से प्रमेय का प्रयोग करेंगे। बद्ध और मुक्त जीवों में फिर अन्तर ही क्या रहा ? ___ इसका भी तत्त्वार्थों का संग्रह ( संकलन ) करनेवाले परिच्छेद में दिया गया है'मुक्त जीव महेश्वर के समान ही सभी प्रमेय पदार्थों ( अच्छा बुरा, सुन्दर-कुरूप, अमृतविष ) को अपनी आत्मा से अभिन्न समझते हुए समान रूप से देखता है ( अर्थात् विषयों में वह भेद-भाव नहीं करता है )। दूसरी ओर, बद्ध जीव [ अभेद का ज्ञान न होने के कारण ] प्रमेय पदार्थों में कई प्रकार के भेद देखता है ( अमृत और विष को एक दृष्टि से नहीं देखता है ) ॥ २० ॥ (१०. प्रत्यभिज्ञा की आवश्यकता-अर्थक्रिया में भेद ) ननु आत्मनः परमेश्वरत्वं स्वाभाविकं चेन्नार्थः प्रत्यभिज्ञाप्रार्थनया । न हि बीजमप्रतिज्ञातं सति सहकारिसाकल्येऽङ्कुरं नोत्पादयति । तस्मात्कस्माद्वात्मप्रत्यभिज्ञाने निर्बन्ध इति चेत्__उच्यते । शृणु तावदिदं रहस्यम् । द्विविधा ह्यर्थक्रिया-बाह्याकुरादिका, प्रमातृविश्रान्तिचमत्कारसारा प्रीत्यादिरूपा च । तत्राद्या प्रत्यभिज्ञानं नापेक्षते । द्वितीया तु तदपेक्षत एव । यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि परमेश्वर हो जाना यदि आत्मा स्वाभाविक गुण ही है तो प्रत्यभिज्ञा की प्रार्थना करना तो निरर्थक ही न है ? यदि सारी सहकारी सामग्रियाँ तैयार हों और बीज का प्रत्यक्षीकरण नहीं भी हुआ हो तो ( गुप्त रूप से बीज छींट दिया गया हो ) तो क्या अंकुर उत्पन्न नहीं होता ? [ बीज ज्ञात रहे या अज्ञात, अन्य सामग्रियाँ (खेत, पानी, हवा, धूप आदि ) तैयार रहें तो वह अवश्य अंकुरित होगा। उसी प्रकार, 'मैं ईश्वर हैं' यह बात जीव को मालूम रहे या नहीं, यदि वह सचमुच ईश्वर का स्वरूप है, जैसा कि आप स्वीकार करते हैं, तो सदा ही मुक्त रहेगा। ] तो, किस लिए आप लोग आत्मा की प्रत्यभिज्ञा ( साक्षात्कार ) के लिए आग्रह (निर्बन्ध ) कर रहे हैं ? [ इस प्रकार प्रत्यभिज्ञा की आवश्यकता ही नहीं ] । ___ इस शंका का समाधान हम करते हैं। पहले सुनो, रहस्य यह है। अर्थक्रिया । फल देनेवाली क्रिया )' दो प्रकार की होती है-एक तो बाह्य ( External ) जिसमें १. देखें सर्वदर्शनसंग्रह में बौद्ध-दर्शन, क्षणिकवाद का प्रसंग; पृ० ३३-४९ ।
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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