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________________ ( २६ ) बौद्ध लोग तो व्याप्ति की स्थापना के लिये कार्य-कारण-सम्बन्ध तथा तादात्म्यसम्बन्ध को उपाय के रूप में उपस्थित करते हैं किन्तु जैन लोग अन्वय और व्यतिरेक की विधि से ही संतुष्ट हैं। हाँ इतना वे दोनों मानते हैं कि व्यभिचार की शंका न रहे। शब्द और उपमान आदि प्रमाणों को अनुमान के अन्तर्गत ही रखा जाता है । वैशेषिक लोग भी इसी विधि से केवल दो प्रमाण ही मानते हैं। उनका कहना है कि शब्द-प्रमाण सभी स्थानों पर प्रमाण ही नहीं होता। माध्व-सम्प्रदाय बाले दो ही प्रमाण मानते हैं किन्तु अनुमान नहीं, प्रत्यक्ष और शब्द को। शब्द के द्वारा प्रतिपादित अर्थ का बोधक होने पर ही अनुमान प्रमाण माना जा सकता है। रामानुज-सम्प्रदाय वाले स्पष्ट रूप से अनुमान को पृथक् गिनकर तीन प्रमाणों को बात करते हैं । इन तीन प्रमाणों को मानने की प्रथा सांख्य-योग में भी है। प्रमाणों के विशेषज्ञ के रूप में मान्य नैयायिकों ने प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द इन चारों को प्रमाण के रूप में स्वीकार किया है। माहेश्वरसम्प्रदाय वाले भी घुमा-फिराकर इन्हीं प्रमाणों को स्वीकार करते हैं। मीमांसकों के अनुसार अर्थापत्ति और अनुपलब्धि को भी प्रमाण माना गया है । यह दूसरी बात है कि प्रभाकर-मत के मीमांसक अभाव नहीं मानते । अर्थापत्ति का अर्थ है कि जब किसी दूसरे प्रकार से वस्तुस्थिति की असिद्धि हो तो किसी एक स्थिति का आपादान करें, जैसे दिन में भोजन न करने पर भी देवदत्त मोटा हुए चले जा रहे हैं, तो अर्थापत्ति से हम जान सकते हैं कि वे रात में ही डटकर भोजन करते होंगे क्योंकि किसी दूसरे प्रकार से उनकी मोटाई सम्भव नहीं है। अनुपलब्धि का अर्थ है किसी वस्तु का अभाव जानना। सभा में पहुँचते ही हमें मालूम हो गया कि वहाँ हमारा मित्र नहीं है । यह बात अनुपलब्धि-प्रमाण से ही मालूम हुई है। शंकराचार्य भी उपर्युक्त छह प्रमाणों को ही मान्यता देते हैं। पौराणिकों का भी एक सम्प्रदाय है जो सम्भावना और ऐतिह्य को भी प्रमाण मानता है । नवाँ प्रमाण चेष्टा है जिसे तान्त्रिक और साहित्यिक लोग मानते हैं। यद्यपि इन प्रमाणों में प्रत्यक्ष को शिरोमणि कहा गया है किन्तु कई ऐसे विषय हैं जिनकी सिद्धि के लिये हमें अनुमान और शब्द पर अवलम्बित होना पड़ता है जैसे ब्रह्म की सिद्धि के लिये श्रुति को ही शंकराचार्य ने प्रमाण-शिरोमणि माना है। इस प्रकार प्रमाणों की विवेचना करने के पश्चात् इनके आधार पर दार्शनिकों को हम दो कोटियों में रख सकते हैं तार्किक, और श्रौत । श्रोत दार्शनिक वे हैं जो मूलतत्त्व के अन्वेषण में श्रुति को ही मुख्य साधन मानते हैं । १ अभ्यंकर-उपोद्घात पृ० ४२ ।
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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