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________________ अक्षपार-वनम् ३९१ लेशादृष्टिनिमित्तदुष्टिविगमप्रभ्रष्टशातुषः शोन्मेषकलङ्किभिः किमपरस्तन्मे प्रमाणं शिवः। (न्या० कु० ४।६) इति । तच्चतुर्विधं प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दभेदात् । 'मेरे लिए तो वे शिव ही प्रमाण हैं; सिद्ध पदार्थों के विषय में जिन (शिव ) का अनुभव प्रत्यक्ष रूप से होता है, नित्य के साथ युक्त है (क्षणिक नहीं है ) तथा किसी भी दूसरे साधन की अपेक्षा नहीं रखता; इस प्रकार के अपने अनुभव में जिन्होंने सभी (निखिल ) वर्तमान (प्रस्तावी = प्रस्तुत ) वस्तुओं का उत्पादनादि क्रम स्थिर कर लिया है; लेशमात्र भी [ पदार्थों के ] न दिखलाई पड़ने देनेवाले ( अदृष्टि-निमित्त ) दोषों को दूर हटाकर, जिन्होंने शंका-रूपी भूसों को भस्मीभूत कर दिया है । शंकाओं की उत्पत्ति से कलंकित दूसरे प्रमाणों से क्या लाभ है ?' (न्यायकुसुमांजलि ४।६)। [ ईश्वर का ज्ञान प्रत्यक्ष ही है सारे पदार्थों का वे साक्षात्कार करते हैं । यह साक्षात्कार भी मनुष्यों के ज्ञान की तरह क्षणिक नहीं, प्रत्युत नित्य है । अन्त में, ईश्वर को ज्ञान प्राप्त करने के लिए किसी भी बाह्य साधन की अपेक्षा नहीं पड़ती। हमलोग भी कुछ वस्तुओं का प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त करते हैं, योगी लोग अपने योग-बल से ही यह सम्भव कर दिखाते हैं। उन परमेश्वर के विषय में क्या कहना जिनकी शक्ति अचिन्तनीय है ? सृष्टि के आरम्भ में पहले के कल्प में जो-जो पदार्थ सिद्ध थे उनकी केवल कल्पना करके ही ईश्वर देखना आरम्भ करते हैं और उधर वे पदार्थ तैयार होने लगे ! पुरुषसूक्त में 'यथापूर्वमकल्पयत्' के द्वारा इसी तथ्य की ओर संकेत किया गया है । उन ईश्वर के ज्ञान में ही सारे पदार्थों की उत्पत्ति आदि का क्रम ( Order ) निहित है। सारा संसार ही ज्ञानमय ( Spiritual, idealistic ) है । इन पदार्थों की स्थिति या क्रम के विषय में हम लोग अपने अज्ञानवश नाना प्रकार की शंकाएं करते रहते हैं, किन्तु मूल वस्तु को नहीं समझ सकने के कारण ही ऐसा होता है। परोक्ष ज्ञान में तो शंकाएं होती ही हैं, प्रत्यक्ष ज्ञान में भी पूर्ण रूप में वस्तु का ज्ञान न होने के कारण किसी एक अंश के अदर्शन से अनेक प्रकार की विपरीत भावनाएँ चली आती हैं। ये दोष परमेश्वर से सर्वथा पृथक् रहते हैं । अपने ज्ञान-पवन से ईश्वर इन शंका-तुषों को उड़ाकर कहाँ से कहाँ ले जाते हैं । शंकाओं से दूसरे प्रमाण कलंकित हैं, कोई-न-काई शंका उन प्रमाणों को धर हो दबाते हैं। इसलिए अन्त में उदयन निष्कलंक शिव को ही प्रमाण मानते हैं । यह प्रमाण चार प्रकार का है-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द । विशेष-प्रमाणों की संख्या के विषय में प्रायः सभी दर्शनों में कुछ-न-कुछ विचार किया गया है । चार्वाक केवल प्रत्यक्ष ( Perception ) को ही प्रमाण मानते हैं । जैन और बौद्ध प्रत्यक्ष के साथ अनुमान ( Inference ) को भी प्रमाण मानते हैं । वैशेषिकों के लिए
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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