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________________ RAMIND ३९० सर्वदर्शनसंग्रहेइस प्रकार ही प्रतितन्त्र-सिद्धान्त (केवल एक तन्त्र या शास्त्र में प्रचलित सिद्धान्त ) से जो परमेश्वर की प्रामाणिकता सिद्ध की जाती है उसका संकलन भी होता है। जैसा कि सूत्रकार ने कहा है-'जिस प्रकार मन्त्रों की और आयुर्वेद की प्रामाणिकता [ आप्त प्रमाण से ] सिद्ध होती है उसी प्रकार उस (परमेश्वर ) की प्रामाणिकता भी यथार्थवक्ता ( आप्त) की प्रामाणिकता से सिद्ध होती है' ( २।११६८ ) । [ मन्त्रों से विषादि का निवारण होता है तथा आयुर्वेद-शास्त्र से उचित औषधियों का परिज्ञान होता है। इनकी प्रामाणिकता इनके उपदेशकों पर आधारित है, क्योंकि वे आप्त अर्थात् यथार्थ का ज्ञान करानेवाले ऋषि हैं। ये इसलिए आप्त हैं कि इन्होंने सत्य का साक्षात्कार किया है, जीवों पर दया की भावना से प्रवृत्त हैं तथा अपने सत्यज्ञान को मानवों तक पहुंचाते हैं । जैसे मन्त्र और आयुर्वेद की बातों पर विश्वास करते हैं। उसी प्रकार आप्त के उपदेश पर विश्वास करना चाहिए। यह सूत्र वेद की सत्ता के विषय में सूचना देता है कि वेद के द्रष्टा मन्त्रों और आयुर्वेद के भी लेखक हैं, अतः वेद की प्रामाणिकता भी उसी विश्वास के साथ माननी चाहिए। इसलिए यह अभिप्राय निकलता है कि सर्वाधिक आप्त ( Reliable ) परमेश्वर की प्रामाणिकता भी सूत्रकार को अभीष्ट है।] ___ इसी ढंग से न्यायमार्ग-रूपी समुद्र के पार तक देखनेवाले तथा विश्व भर में विख्यात कीर्तिवाले उदयनाचार्य भी न्यायकुसुमांजलि के चतुर्थ स्तबक ( गुच्छ, अध्याय ) में कहते हैं-'सम्यक् रूप से ( यथार्थ रूप में ) ज्ञान प्राप्त कर लेना ( परिच्छित्तिः ) मिति ( यथार्थ ज्ञान ) है। उससे (प्रमा से ) युक्त प्रमाता ( यथार्थवक्ता ) होता है [ उस प्रमा से युक्त होना ही प्रमाता बनना है । उस (मिति या प्रमा) से सम्बन्धाभाव ( अयोग ) न रहना ( व्यवच्छेद ) अर्थात मिति से आवश्यक सम्बन्ध रहना ही गौतम के अनुसार प्रामाण्य ( प्रामाणिकता Authority ) है ।' (न्यायकुसुमांजलि ४।५) । विशेष-प्रतितन्त्रसिद्धान्त का लक्षण न्यायसूत्र में इस प्रकार दिया गया है-'समानतन्त्रसिद्धः परतन्त्रासिद्धः प्रतितन्त्रसिद्धान्तः' ( १।१।२९ ) अर्थात् जो समानतन्त्र में माना जाय, किन्तु दूसरे तन्त्र में स्वीकृत न हो वह प्रतितन्त्र-सिद्धान्त कहलाता है। शब्द को अन्तिम मानना या परमेश्वर को प्रमाण मानना, ये प्रतितन्त्रसिद्धान्त है । समानतन्त्र अर्थात् वैशेपिक दर्शन में इन्हें मान्य ठहराते हैं। किन्तु परतन्त्र में जैसे मीमांसा-दर्शन में इन्हें अस्वीकृत किया गया है। ___ उदयनाचार्य के विषय में व्यक्त किये गये माधवाचार्य के प्रशंसात्मक उद्गार बड़े प्रेरक हैं । पारदृश्वा-पार + /दृश् + क्वनिप् = पादं दृष्टवान् (जो पार तक देखे हुए हो)। देखिये-अ० सू० ३।२।९४ दृशेः क्वनिप् । न्यायकुसुमांजलि में पांच स्तबक हैं। २. साक्षात्कारिणि नित्ययोगिनि परद्वारानपेक्षस्थिती भूतार्थानुभवे निविष्टनिखिलप्रस्ताविवस्तुक्रमः ।
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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