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________________ अक्षापार-वर्शनम् २८९ दीधिति पर अपनी टीकाएं लिखीं (१५८० ई० ) । अन्तिम टीका मथुरानाथी के नाम से प्रसिद्ध हुई। ठीक इसी समय जगदीश भट्टाचार्य ( १५९० ई० ) ने तत्त्वदीधिति पर अपनी टिप्पणी की और जिसकी टीका भी मिथिला के शंकर मिश्र ( १६२५ ई० ) ने लिखी थी। जगदीश की दूसरी कृति शब्दशक्तिप्रकाशिका है जिसमें शब्दशक्ति पर वेदुष्यपूर्ण विचार दिये गये हैं। गदाधर भट्टाचार्य ने भी तत्त्वदीधिति पर अपनी बृहत् व्याख्या प्रस्तुत की जो सर्वसाधारण में गदाधारी के नाम से प्रचलित है। व्यत्पत्तिवाद और शक्ति वाद जैसे सुप्रसिद्ध ग्रन्थों की रचना का श्रेय भी इन्हीं को प्राप्त है। इस प्रकार न्यायशास्त्र के प्रमुख अचार्यों और ग्रन्थों का उल्लेख किया जा सकता है। (२. प्रमाण का विचार ) मानाधीना मेयसिद्धिरिति न्यायेन प्रमाणस्य प्रथममुद्देशे तदनुसारेण लक्षणस्य कपनीयतया प्रथमोद्दिष्टस्य प्रमाणस्य प्रथमं लक्षणं कथ्यतेसाधनामयाव्यतिरिक्तत्वे सति प्रमाव्याप्तं प्रमाणम् । प्रमाण के अधीन प्रमेय की सिद्धि होती है ( = प्रमाण का विचार करने पर ही प्रमेय का विचार होता है )-इस नियम के अनुसार प्रमाण का प्रथम उल्लेख किया है । चूंकि उद्देश ( नामाहण) के बाद लक्षण का विचार करना चाहिए इसलिए प्रथम उल्लिसित प्रमाण का ही लक्षण पहले कहा जाता है-प्रमाण वह है जो साधनों ( यथार्थ अनुभव के साधन-जेसे आंख, कान, नाक, बुद्धि ) तथा आश्रय ( यथार्थ अनुभव के आश्रय अर्थात् आत्मा) से व्यतिरिक्त ( पृथक् ) न हो और जो प्रमा ( यथार्थ अनुभव ) के द्वारा व्याप्त भी हो। [ यथार्थ अनुभव को प्रमा कहते हैं, जैसे पौत का ज्ञान पीतरूप में होता, नीलरूप में नहीं। प्रमा का करण प्रमाण है अर्थात् जिससे (जिस साधन से ) यथार्थ अनुभव हो । प्रमा का साधन प्रमा से नित्यसम्बद्ध रहेगा ही—वही प्रमाण है। प्रमा का आश्रय परमेश्वर भी नित्यसंबद्ध है किन्तु दूसरा आश्रय जीव नित्यसंबद्ध नहीं होता, उसे भ्रम हो सकता है । इसकी व्यावृत्ति के लिए 'प्रमाव्याप्त' पद रखा गया है जिससे जीव से पृथक् न रहने पर भी प्रमाण को यथार्थ अनुभव से नित्य-संबद्ध रहना अनिवार्य है । इससे परमेश्वर की प्रामाणिकता भी सिद्ध होगी, क्योंकि वही सबसे अधिक आप्त (विश्वसनीय ) है।] एवं च प्रतितन्त्रसिद्धान्तसिद्धं परमेश्वरप्रामाण्यं संगृहीतं भवति । यदचकथत् सूत्रकारः-मन्त्रायुर्वेदप्रामाण्यवच्च तत्प्रामाण्यमाप्तप्रामाण्यात् (न्या० सू०२।१।६८) इति । तथा च न्यायनयपारावारपारदृश्वा विश्वविख्यातकीतिरुदयनाचार्योऽपि न्यायकुसुमाञ्जलौ चतुर्थे स्तबके १. मितिः सम्यक्परिच्छित्तिस्तद्वत्ता च प्रमातृता। तवयोगव्यवच्छेदः प्रामाण्यं गौतमे मते ॥ (४.५) इति ।
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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