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________________ ३४८ सर्वदर्शनसंग्रहे नित्य भी होता है ( सामान्य होने के कारण)। पुनः गन्ध का समानाधिकरण ( पृथिवीसामान्य ) गन्ध में होगा ही नहीं जिससे यह गन्धासमवेत भी है। पृथिवी-सामान्य गगन से समवेत नहीं होता ( जो हमने हटा ही दिया है ), केवल पृथिवी में पृथिवीत्व की वृत्ति रहती है । इसलिए 'पृथिवीत्व' का ही लक्षण हो गया। (२) यदि लक्षण से 'अरविन्द से समवेत रहना' हटा दें तो यह गगन में वर्तमान एकत्व-संख्या का भी लक्षण हो जायगा । एकत्व-संख्या गगन से समवेत रहती है, नित्य भी है। एकत्व-संख्या नित्य द्रव्य में रहने पर नित्य है, अनित्य में रहने पर अनित्य होती है-यहाँ आकाशगत है इसलिए नित्य है । गन्ध से इसे कुछ लेना-देना है ही नहीं, क्योंकि एक गुण में दूसरा गुण आ नहीं सकता । अरविन्द से भी यह समवेत नहीं होती । अरविन्द में भी एकत्व है, पर वह एकत्व आकाश के एकत्व की अपेक्षा भिन्न हैं । इस प्रकार ऐसी स्थिति में एकत्व-संख्या का लक्षण हो गया । ( ३ ) यदि लक्षण से नित्य होने पर यह विशेषण निकाल दें तो गगन और अरविन्द दोनों में विद्यमान द्वित्वसंख्या का भी लक्षण बन जायगा। द्वित्वसंख्या गगन और अरविन्द दोनों में समवेत है, गुण होने के कारण दूसरे गुण गन्ध से इसका सम्बन्ध ही नहीं। हां, यह नित्य नहीं है। द्वित्व आदि संख्याएं सर्वत्र अपेक्षा-बुद्धि से उत्पन्न होती हैं इसलिए अनित्य हैं । ( इसके विचार के लिए आगे देखें। ) निदान, यह लक्षण द्वित्व-संख्या का हो गया। ( ४ ) अन्त में यदि लक्षण से 'गन्ध से समवेत रहना' यह विशेषण निकाल दें तो यह द्रव्य, गुण और कर्म तीनों में अधिष्ठित सत्ता का भी लक्षण हो जायगा । सत्ता गगन और अरविन्द में तो है ही, नित्य भी है। लेकिन यह गुणों में भी है, अतः गन्ध से असमवेत नहीं हो सकती । लक्षण से वह पद निकल जाने पर इसकी प्राप्ति हो ही जायगी। लक्षण ऐसा हो जो लक्ष्य से न तो अधिक को व्याप्त करे, न कम को। अधिक को व्याप्त करने पर अतिव्याप्ति-दोष ( Too-wide definition ) होता है, कम को व्याप्त करने पर अव्याप्ति-दोष ( Fallacy of too-narrow definition ) होता है। उपर्युक्त पदों को निकाल देने से लक्षण सदैव अपने लक्ष्य से अधिक को समेट लेता हैद्रव्यत्व के साथ-साथ कभी तो पृथिवीत्व का, कभी एकत्व का, कभी द्वित्व का और कभी सत्ता का भी लक्षण यह बन जाता है, अर्थात् अतिव्याप्ति-दोष हो जाता है। इससे बचने के लिए प्रत्येक पद रखना अनिवार्य है। ___गुणत्व का लक्षण-गुण-सामान्य उस जाति को कहते हैं, जो [ द्रव्य, गुण, कर्म में अधिष्ठित ] सत्ता के द्वारा सीधे ही व्याप्त हो सके, समवायि-कारण (द्रव्य ) से समवेत नहीं रहे तथा असमवायि-कारण से भिन्न किसी भी पदार्थ (जैसे-आत्मा के गुण ) से समवेत हो। [ गुणत्व के लक्षण में भी तीन विशेषण हैं-(१) ऐसी जाति जो समवायि-कारण से समवेत न हो, ( २ ) जो असमवायि-कारण से भिन्न किसी पदार्थ से समवेत हो तथा
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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