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________________ औलुक्य-दर्शनम् ३४९ (३) जो सत्ता के द्वारा सोधे ( साक्षात्, परम्परा से नहीं ) व्याप्त हो सके । समवायिकारण उसे कहते हैं जिसके समवेत होने या मिलने पर कार्य उत्पन्न होता है, जैसे-पट के लिए तन्तु, घट के लिए मिट्टी आदि । समवायि-कारण कोई द्रव्य ही होता है। द्रव्य में गुणत्व नहीं रहता, वह किसी गुण में ही रह सकता है अर्थात् गुणत्व द्रव्य से समवेत नहीं होता है । असमवायि-कारण उसे कहते हैं जो कार्य-कारण के साथ किसी वस्तु के मिल जाने पर कारण के रूप में आवे, जैसे-पट में तन्तुओं के मिलने ( समवेत होने ) पर उन तन्तुओं का संयोग पटरूपी कार्य के लिए कारण है । असमवायि-कारण से भिन्न आत्मा के विशेष गुण होते हैं, क्योंकि आत्मा के गुण कभी भी असमवायि-कारण नहीं हो सकते । इन गुणों से गुणत्व समवेत रहता है । सत्ता तीन पदार्थों में है-द्रव्य, गुण, कर्म। इसके द्वारा साक्षात् तीन जातियों को व्याप्त किया जा सकता है-द्रव्यत्व, गुणत्व, कर्मत्व । पृथिवीत्व आदि द्रव्यत्व के द्वारा सीधे व्याप्त होते हैं, सत्ता के द्वारा परम्परा से । सत्ता पहले द्रव्यत्व को व्याप्त करती है, फिर द्रव्यत्व पृथिवीत्व को व्याप्त करता है। इसी को ‘परम्परया व्याप्तिः' कहते हैं । इसलिए गुण-सामान्य सत्ता के द्वारा साक्षात् व्याप्य है। और भी पदार्थ-द्रव्यत्व, कर्मत्व-सत्ता से व्याप्त होते हैं पर अन्य विशेषण गुण-सामान्य को उनसे पृथक् कर देते हैं । लक्षण में दो चीजें दी जाती हैं--एक तो सामान्य-धर्म ( Genus), दूसरा विशेष-धर्म ( Differentia )। तीसरा विशेषण सामान्य-धर्म है, प्रथम दोनों विशेषण विशेष-धर्म हैं। अब विशेषणों की उपयोगिता पर दृष्टिपात करें। ऊपर हम देख चुके हैं कि इस लक्षण में जो सामान्य-धर्म है वह गुणत्व, द्रव्यत्व और कर्मत्व तीनों के लिए समान है। यह तो इसका विशेष-धर्म है जो उन दोनों से गुणत्व को पृथक् करता है। इसलिए यदि विशेष धर्मों में से कोई हटता है तो लक्षण द्रव्यत्व या कर्मत्व को व्याप्त कर लेगा। (१) यदि लक्षण से हम यह विशेषण हटा दें कि 'यह ( गुणसामान्य ) समवायि-कारण अर्थात् द्रव्य से असमवेत रहता है तो यह लक्षण द्रव्यत्व को अतिव्याप्त कर लेगा। द्रव्य का सामान्य सत्ता के द्वारा साक्षात् रूप से व्याप्य होता है तथा असमवायि-कारण से भिन्न द्रव्य में समवेत भी होता है। द्रव्य कभी भी असमवायि-कारण नहीं हो सकता इसलिए द्रव्य में समवेत होने के कारण द्रव्यत्व 'असमवायिकारणभन्न-समवेत' है हो । हाँ, यह समवायिकारण ( द्रव्य ) से असमवेत नहीं हो सकता, क्योंकि द्रव्यत्व द्रव्य ( समवायि-कारण ) में अवस्थित रहता है। इस प्रकार यदि पहला विशेषण उक्त लक्षण से हटा दें तो यह द्रव्यत्व का भी लक्षण बन जायगा। (२) यदि उक्त लक्षण से यह विशेषण हटा दें कि 'यह ( गुण-सामान्य ) असमवायिकारण से भिन्न ( आत्मा के विशेष गुण १. इनके अतिरिक्त, इन दोनों से भिन्न निमित्त-कारण ( Efficient Cause ) भी होता है जैसे--पट-कार्य के लिए जुलाहा, करघा, बण्डा आदि ।
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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