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________________ ३५० सर्वदर्शनसंग्रह जैसे-ज्ञान, बुद्धि ) वस्तुओं से समवेत होता है, तो यह कर्मत्व को अतिव्याप्त ( Include ) कर लेगा। कर्म का सामान्य सत्ता के द्वारा तो साक्षाद् व्याप्त होता ही है, समवायि-कारण ( द्रव्य ) से असमवेत भी रहता है। कर्म और द्रव्य में समवाय-सम्बन्ध तो है नहीं। केवल एक बात है कि कर्मत्व असमवायि-कारण से भिन्न वस्तु से समवेत नहीं रहता। सभी कर्म असमवायि-कारण हैं, क्योंकि उनका सम्बन्ध संयोग या विभाग से अनिवार्यतः होता है, असमवायिक-कारण से भिन्न वस्तु में कर्म की कल्पना ही असम्भव है। ( ३ ) अब यदि अन्तिम विशेषण कि 'यह सत्ता के द्वारा साक्षात् रूप में व्याप्य होता है' हटा दें, तो ज्ञानत्व आदि में ही अतिव्याप्ति हो जायगी। ज्ञानत्व की वृत्ति ज्ञान में रहती है, समवायि-कारण ( द्रव्य ) में नहीं। इसलिए ज्ञानत्व समवायि-कारण से असमवेत है। यह असमवायि-कारण से भिन्न वस्तु में समवेत भी है, क्योंकि ज्ञान आदि आत्मा के विशेष गुण हैं, ये असमवायि-कारण नहीं हो सकते-असमवायि-कारण से भिन्न स्थान में, जैसेज्ञान में इनकी वृत्ति होती है। किन्तु इस ज्ञान को सत्ता साक्षात् रूप से व्याप्त नहीं करती । गुण के द्वारा ज्ञान सीधे व्याप्त होता है, सत्ता के द्वारा परम्परा से । इस प्रकार गुणत्व का शुद्ध लक्षण यदि चाहते हैं, कोई पद हटा नहीं सकते। ]' (५ क. कर्मत्व, सामान्य, विशेष और समवाय ) कर्मत्वं नाम नित्यासमवेतत्वसहितसत्तासाक्षाव्याप्यजातिः। सामान्यं तु प्रध्वंसप्रतियोगित्वरहितमनेकसमवेतम् । विशेषो नामान्योन्याभावविरोधिसामान्यरहितः समवेतः । समवायस्तु समवायरहितः सम्बन्धः इति षण्णां लक्षणानि व्यवस्थितानि । कर्म की जाति वह है जो नित्य पदार्थों में समवाय-सम्बन्ध के साथ विद्यमान न हो तथा सत्ता के द्वारा सीधे-सीधे व्याप्त होती हो। [ यह स्मरणीय है कि द्रव्यत्व या गुणत्व नित्य पदार्थों में समवेत होते हैं-द्रव्यत्व जाति, परमाणु, आकाश आदि नित्य पदार्थों में समवेत होती है; गुणत्व-जाति भी जलादि परमाणुओं में स्थित रूप आदि गुणों में तथा परमात्मा में स्थित ज्ञानादि गुणों में रहती है। ये गुण नित्य हैं तथा इनमें गुण की जाति समवाय-सम्बन्ध से रहती है । द्रव्यत्व और गुणत्व नित्य पदार्थों में समवेत हैं, असमवेत नहीं हैं-इसीलिए उन दोनों से पार्थक्य प्रदर्शित करने के लिए कर्मत्व को नित्य से असमवेत कहा है । सभी कर्म अनित्य होते हैं । इसीलिये नित्य से उसकी जाति को कभी १. गुणत्व के लक्षण में एक दूसरा पाठ भी है-समवायिकारणासमवायिकारणभिन्नसमवेतसत्तासाक्षाव्याप्यजातिः अर्थात् गुणत्व वह है जो सत्ता के द्वारा साक्षात् व्याप्य हो, समवायि-कारण या असमवायि-कारण से भिन्न पदार्थों से समवेत हो । द्रव्य समवायि-कारण है, उससे गुण भिन्न है। संयोग विभाग असमवायि-कारण हैं, गुण उनसे भी भिन्न है । दोनों पाठ ही एक अर्थ पर आते हैं।
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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