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________________ ६९४ सर्वदर्शनसंग्रहेप्रवृत्तिः स्यादिति चेत्-न। स्वरूपतो विषयतश्चागहीतभेदयोः ग्रहणस्मरणयोः सन्निहितरजतगोचरज्ञानसारूप्येण वस्तुतः परस्परं विभिन्नयोरप्यभेदोचितसामानाधिकरण्यव्यपदेशहेतुत्वोपपत्तेः। [ अब पुनः शंका है-] मान लिया कि रजत का ज्ञान हो जाने से रजत की इच्छा करनेवाला व्यक्ति रजत की ओर प्रवृत्त हो जायगा। किन्तु सामने में विद्यमान वस्तु में उसकी प्रवृत्ति केसे होगी ? [ प्रश्न है कि यदि रजत के स्मरण से व्यक्ति की प्रवृत्ति होती है तो स्मरण जिस रजत का हुआ है उसी की ओर प्रवृत्ति होगी। घर में अपनी पेटी में उसने चाँदी देखी हो और उसी का स्मरण हुआ हो तो उसी चांदी की ओर व्यक्ति प्रवृत्त होगा, न कि सामने में स्थित वस्तु की ओर । ] ____ किन्तु बात ऐसी नहीं है । ग्रहण और स्मरण इन दोनों के भेद का ज्ञान ( Apprehension ) न तो स्वरूप के आधार पर हुआ है, न विषय के आधार पर ही। इसलिए ये सन्निहित ( सामने वर्तमान ) रजत के विषय में उत्पन्न ज्ञान के समरूप हैं। वास्तव में ये दोनों एक-दूसरे से भिन्न हैं तथापि [ किन्हीं दो पदार्थों में ] अभेद की सिद्धि के लिए उचित जो समानाधिकरण का नियम ( Law of identity ) होता है, उसी से उक्त ('इदं रजतम्' ) व्यवहार का कारण समझा जा सकता है। [सामने में विद्यमान रजत का ज्ञान आंखों के सम्पर्क में आनेवाले रजत का प्रत्यक्ष और यथार्थ ज्ञान है। जैसे 'इदं रजतम्' वाक्य इदन्ता तथा रजतता इन दोनों में समानाधिकरण का व्यवहार उत्पन्न करके उसी के द्वारा प्रवृत्ति भी उत्पन्न करता है, उसी प्रकार उस ज्ञान की सरूपता के कारण ये दोनों ज्ञान भी समानाधिकरण का व्यवहार और प्रवृत्ति उत्पन्न करेंगे । अब बतलाते हैं कि सन्निहित रजत के ज्ञान से ग्रहण-स्मरणात्मक ज्ञान की सरूपता कैसे है ? ग्रहणस्मरणयोः सन्निहितरजतगोचरं कथम् ? यथा चैतत्तथा निशम्यताम् । सन्निहितरजतगोचरं हि विज्ञानमिदमंशरजतांशयोरसंसर्ग 'नावगाहते। तयोः संसृष्टत्वेन असंसर्गस्यैवाभावात् । नापि स्वगतं भेदम् । एकज्ञानत्वात् । एवं ग्रहणस्मरणे अपि दोषवशाद्विद्यमानमपीदमंशरजतांशयोरसंसर्ग भेदं नावगाहेत इति । भेवाग्रहणमेव सारूप्यम् ।। सामने में विद्यमान रजत के ज्ञान के साथ ग्रहण और स्मरण की समरूपता कैसे होती है ? जैसे होती है, वह सुनो-सामने में विद्यमान ( सन्निहित ) रजत के विषय में जो विशिष्ट ज्ञान ( सामान्य रूप से होनेवाले ज्ञानों की अपेक्षा भिन्न ज्ञान, Different from the usual way of knowledge ) होता है वह 'इदम्' के अंश और रजत के अंश में भेद ( असंसर्ग ) का ग्रहण नहीं करता । कारण यह है कि ये दोनों अंश एक दूसरे से मिले हुए हैं अतः भेद हो ही नहीं सकता । [ दोनों ज्ञानों की सरूपता भेद का ग्रहण न कर सकने के कारण है । जहाँ पर सच्चे रजत का प्रत्यक्ष करते हैं वहां पर तो 'इदम्'
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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