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________________ शांकर-पर्शदम् ६९३ [ वेदान्ती हमारे पर आक्षेप करते हैं-] अच्छा, यह तो बतलाइये कि आपका यह ( ग्रहण और स्मरण ) दोनों पृथक्-पृथक् [ 'इदं रजतम्' के ] व्यवहार का कारण है या दोनों मिलकर एक ही साथ ? इनमें पहला विकल्प सम्भव नहीं है, क्योंकि उस स्थिति में देश ( Place ) के भेद से भी प्रवृत्ति होने लगेगी। [ 'इदम्' का प्रत्यक्ष हुआ है तो उसकी प्रवृत्ति वैसे ही पदार्थ की ओर होगी । स्मरण से उत्पन्न होनेवाली प्रवृत्ति नियमतः वैसी ही नहीं होती । दूसरे एक-एक प्रकार के ज्ञान से ही प्रवृत्ति होने का प्रसङ्ग हो जायगा। श्रवृत्तिभेद हो जायगा।] दूसरा विकल्प भी ठीक नहीं है, क्योंकि [ कणाद ने यह लिखकर कि ] 'प्रयत्न एक ही साथ न हो सकने से तथा ज्ञानों की उत्पत्ति एक साथ न होने के कारण [ मन एक ही है ]'-(वे० सू० ३।२।३), ज्ञानों के एक साथ न होने का निषेध किया है। [ कणाद के वैशेषिक दर्शन में सूत्र इस रूप में है-प्रयत्नायोगपद्याज्ज्ञानायोगपद्याच्चकम् । इसमें कहा गया है कि एक शरीर में मन एक ही रहता है। यदि एक ही शरीर में कई मन होते तो बहुत से प्रयत्न या ज्ञान साथ-साथ होने लगते । दो विभिन्न अवयव एक दूसरे से विरुद्ध प्रयल एक ही साथ उत्पन्न करते । उसी तरह दो इन्द्रियों से दो ज्ञान एक ही साथ उत्पन्न हो सकते । लेकिन ऐसा होता कहां है ? इसलिए शरीर में एक ही मन सिद्ध होता है। हमारा तात्पर्य इस सूत्र से इतना ही है कि दो ज्ञान एक साथ मिलकर कार्य नहीं कर सकते।] ___ इसलिए [ पूर्वपक्ष के अवान्तर का निष्कर्ष निकला कि ] दो ज्ञान ( ग्रहण + स्मरण ) कारण के रूप में होंगे, यह कहना युक्तिसंगत नहीं है। अब हमारा उत्तर है कि ऐसा मत कहो । यद्यपि दो अविनाशी, ( स्थायी ) ज्ञान एक साथ नहीं रह सकते तथापि एक विनाशी और दूसरे अविनाशी, इन दोनों ज्ञानों के एक साथ होने का तो निषेध नहीं न किया गया है ? इसलिए बिना व्यवधान ( Interval ) के उत्पन्न होनेवाले ज्ञानों का एक साथ रहना ( सहावस्थान ) सिद्ध हो सकता है। [ यदि एक ज्ञान प्रथम क्षण में उत्पन्न होता है और दूसरा द्वितीय क्षण को छोड़कर ( व्यवधान देकर ) तृतीय क्षण में उत्पन्न हो तब तो दोनों की सहावस्थिति कभी सम्भव ही नहीं है। हाँ, यदि वे दोनों क्रमशः प्रथम और द्वितीय क्षणों में उत्पन्न हों जिससे कोई व्यवधान न पड़े तो तृतीय क्षण में एक साथ कार्य कर सकते हैं । ज्ञान प्रथम क्षण में उत्पन्न होता है, द्वितीय क्षण में अवस्थित रहता है और तृतीय क्षण में नष्ट हो जाता है। प्रस्तुत प्रसङ्ग में ग्रहण प्रथम क्षण में उत्पन्न हुवा और स्मरण द्वितीय क्षण में । तृतीय क्षण में ग्रहण विनाशावस्था में जा रहा है जब कि स्मरण उस समय अविनाशावस्था में है। इसलिए तृतीय क्षण में 'इदं रजतम्' का ज्ञान उत्पन्न होता है।] ननु रजतज्ञानाद् रजतार्थी रजते प्रवर्ततां नाम । पौरस्त्ये वस्तुनि कथं
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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