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________________ ५९२ सर्वदर्शनसंग्रहे विच्छिन्न हो जाता है, राग उदार रहता है। जहां क्रोध उदार रहता है, वहां राग विच्छिन्न हो जाता है । ] उनमें प्रसुप्त क्लेश उसे कहते हैं जो प्रबोध (जागृत) करनेवाले सहकारी के अभाव में अभिव्यक्त नहीं हुआ है । [ ये क्लेश चित्तभूमि में हैं पर जगानेवाला न होने से अपना कार्य नहीं करते हैं । इस प्रकार के क्लेश बालकों तथा प्रकृतिलय योगियों में होते हैं । तनु क्लेश वह है जो विरुद्ध ( क्लेशनाशक ) वस्तु को भावना ( ध्यान ) से शिथिल कर दिया गया हो [ जैसे उन योगियों का क्लेश, जिनमें थोड़ी वासना बची हुई हो ] । क्लेश तब विच्छिन्न होता है जब किसी दूसरे अधिक बलवान् क्लेश के ही द्वारा परास्त कर दिया गया हो [ जैसे द्वेष की अवस्था में राग विच्छिन्न हो जाता है और राग की अवस्था में द्वेष । ये दोनों चूंकि एक दूसरे के विरोधी हैं इसलिए एक ही साथ नहीं रह सकते । ] उदार क्लेश वह है जिसमें सहकारी के सामीप्य के कारण कार्य उत्पन्न करने की शक्ति हो जाय [ जैसे बद्ध जीवों में राग या द्वेष या किसी क्लेश का अधिक होना । ] तदुक्तं वाचस्पतिमिश्रेण व्यासभाष्यव्याख्यायाम् - ६. प्रसुप्तास्तत्त्वलीनानां तन्ववस्थाश्च योगिनाम् । विच्छिन्नोदाररूपाश्च क्लेशा विषयसङ्गिनाम् ॥ ( तत्त्ववं ० २।४ इति ) । द्वन्द्ववत्स्वतन्त्र पदार्थद्वयानवगमादुभयपदार्थप्रधानत्वं नाशङ्कितम् । तस्मात्पक्षत्रयेऽपि क्लेशादिनिदानत्वमविद्यायाः प्रसिद्धं हीयेतेति चेत् । इसे वाचस्पति मिश्र ने व्यासभाष्य की [ तत्त्ववेशारदी ] व्याख्या में कहा है'तत्त्व में जो लीन हैं उनके क्लेश प्रसुप्त रहते हैं, योगियों के क्लेश तनु अवस्था में रहते हैं तथा विषयसेवी पुरुषों के क्लेश विच्छिन्न और उदार रूप में रहते हैं ।' ( त० वे० २।४ ) | द्वन्द्व समास की तरह [ अविद्या - शब्द में ] दो स्वतंत्र पदार्थ न उभय पदार्थ की प्रधानता ( द्वन्द्व समास होने ) की भी शंका नहीं इसलिए तीनों प्रकार से विग्रह करने पर अविद्या का वह प्रसिद्ध गुण जो क्लेश आदि का उत्पादन करना है, वही खण्डित होता है । रहने के कारण करनी चाहिए । ( ११ क. आपत्ति का समाधान ) तदपि न शोभनं विभाति । पर्यदासशक्तिमाश्रित्याविद्याशब्देन विद्याविरुद्धस्य विपर्ययज्ञानस्याभिधानमिति वृद्धरङ्गीकारात् तदाह७. नामधात्वर्थयोगे तु नैव नञ् प्रतिषेधकः । वदत्यब्राह्मणाधर्मावन्यमात्रविरोधिनौ । इति । 1
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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