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सर्वदर्शनसंग्रहे
लोग जो एक ही साथ अखिल पदार्थों का साक्षात्कार कर लेते हैं वह भी सम्भव नहीं हो पाता । योगियों का यह साक्षात्कार लौकिक प्रत्यक्ष ही है, अलौकिक नहीं। योग के द्वारा ज्ञान के प्रतिबन्धक कारण भर दूर कर दिये जाते हैं, नहीं तो यह साक्षात्कार सामान्य दृष्टि से ही होता है । इन्द्रियों को भी इसीलिए विभु कहा गया है। यदि ये विभु नहीं होती तो योगी लोग देशान्तर में स्थित पदार्थों का साक्षात्कार कैसे करते ? यह दूसरी बात है कि इन्द्रियाँ अपनी वृत्तियों का लाभ निर्दिष्ट स्थान पर ही करती हैं। स्थानों के आधार पर इन्द्रियों को अण कह देते हैं पर यह कहना केवल औपाधिक ( Conditional ) है। इन्द्रियां सात्त्विक अहंकार से उत्पन्न होती हैं और अहंकार व्यापक है अतः इन्द्रियों को विभु मानने में कोई अड़चन भी नहीं है। फल यह होगा कि मन (चित्त ) और इन्द्रियों के व्यापक होने के कारण सभी विषयों का सन्निकर्ष सदा होता रहेगा। चाहे योगी हो या अयोगी, सदा ही ज्ञान होता रहेगा। ]
[ इस शंका का उत्तर है कि ] ऐसी बात नहीं है। सर्वव्यापक होने पर भी चित्त जिस शरीर में वृत्ति से युक्त ( = विषय के आकार में परिणत ) होता है उस शरीर के साथ जिन विषयों का सम्बन्ध होता है उन्हीं ( विषयों ) के साथ ही उस शरीर का ज्ञान-सम्बन्ध होता है, दूसरों के साथ नहीं-इस प्रकार अतिप्रसक्ति नहीं हो सकती । इसीलिए (चित्त का परिणाम शरीर में ही होता है अन्यत्र नहीं, इसलिए ) चुम्बक की तरह विषय लौहसदृश चित्त को इन्द्रियरूपी प्रणाली ( माध्यम ) से सम्बद्ध करके उपरक्त करते हैं, ऐसा कहा गया है । ( देखिये-व्यासभाष्य ४।१७ )।
तस्माच्चित्तस्य धर्मा वृत्तयो नात्मनः । तथा च श्रुतिः-'कामः संकल्पो विचिकित्सा श्रद्धाश्रद्धा तिरधतिौं / रित्येतत्सर्वं मन एव' (बृ० १॥५॥३) इति । चिच्छक्तेरपरिणामित्वं पञ्चशिखाचार्यराख्यायि-अपरिणामिनी भोक्तशक्तिरिति । पतञ्जलिनापि-'सदा ज्ञाताश्चित्तवृत्तयस्तत्प्रभोः पुरुषस्यापरिणामित्वात्' (पात० यो० सू० ४।१८) इति। चित्तपरिणामित्वेऽनुमानमुच्यते-चित्तं परिणामि ज्ञाताज्ञातविषयत्वात् श्रोत्रादिवदिति । ___ इसलिए वृत्तियाँ चित्त के धर्म हैं, आत्मा के नहीं। इसके लिए श्रुति भी प्रमाण है'काम ( इच्छा ), संकल्प ( 'यह नील है' इस प्रकार का ज्ञान ), सन्देह ( विचिकित्सा), श्रद्धा ( आस्तिक बुद्धि ), अश्रद्धा, धैर्य, अधैर्य, लज्जा, बुद्धि ( या ज्ञान ) और भय, ये सभी मन ( Mind ) ही हैं।' ( बृहदारण्यकोपनिषद्, ११५॥३) पञ्चशिख आचार्य ने चित्शकि ( आत्मा ) का अपरिणामी होना बतलाया भी है-'भोक्तृशक्ति ( अर्थात् आत्मा ) अपरिणामी है' ( यो० सू० २।२० के भाष्य में व्यास द्वारा उद्धृत )। पतञ्जलि ने भी कहा है- '[ चित्-शक्ति के विषय के रूप में ] चित्तवृत्तियां सदा ज्ञात रहती हैं' [ चित्त के विषयभूत घटादि पदार्थों की तरह ज्ञात और अज्ञात दोनों ही नहीं रहतीं ], कारण यह है