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पातञ्जल-दर्शनम्
५८१ भवति तदज्ञातमिति वस्तुनोऽयस्कान्तमणिकल्पस्य ज्ञानाज्ञानकारणभूतोपरागमित्वादयः सधर्मकं चित्तं परिणामीत्युच्यते ।
इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि पुरुष ( आत्मा ) सदा ज्ञाता बना रहता है, इसलिए उसके परिणामी ( परिवर्तनशील ) होने को शंका कभी नहीं उठ सकती । अब चित्त की यह दशा है कि वह जिस विषय से उपरक्त ( सम्बद्ध ) होता है, वही विषय ज्ञात होता है । जिससे उसका उपराग नहीं वह अज्ञात ही रहता है। वस्तु अयस्कान्त मणि (चुम्बक Magnet ) की तरह होती है तथा चित्त लोहे की तरह है। ज्ञान का कारण उपराग ( सम्बन्ध ) है तथा अज्ञान का कारण उपराग न होना है। ये ( उपराग और अनुपराग ) चित्त के धर्म हैं इसीलिए उसे (चित को ) परिणामी कहते हैं। [ चुम्बक क्रियाशील ] नहीं है किन्तु वह आकृष्ट कर सकता है। विषय भी क्रियाहीन ही हैं, किन्तु लोहे के समान कियाशील चित्त को अपनी ओर आकृष्ट करके ( इन्द्रियों के द्वारा ) अपने आकार की तरह का आकार समर्पित करते हैं । आकार का समर्पण ही उपराग कहलाता है। उपराग होने पर विषयों का ज्ञान होता है, न होने पर नहीं । उपराग धर्म है जो चित्त के परिणामी होने पर ही सम्भव है। अतः चित्त का परिणामी होना सिद्ध होता है। • विशेष प्रस्तुत स्थल भारतीय मनोविज्ञान के अध्ययन के लिए अत्यन्त ही उपादेय है । चित्त की वृत्तियों का विश्लेषण योग में ही हुआ है।
(८. चित्त और विषयों का सम्बन्ध ) ननु चित्तस्येन्द्रियाणां चाहंकारिकाणां सर्वगतत्वात् सर्वविषयैरस्ति सदा सम्बन्धः । तथा च सर्वेषां सर्वदा सर्वत्र ज्ञानं प्रसज्येतेति चेत्-न । सर्वगतत्वेऽपि चित्तं यत्र शरीरे वृत्तिमत, तेन शरीरेण सह सम्बन्धो येषां विषयाणां, तेष्वेवास्य ज्ञानं भवति, नेतरेषु-इत्यतिप्रसङ्गाभावात् । अत एवायस्कान्तमणिकल्पा विषया अयःसधर्मकं चित्तमिन्द्रियप्रणालिकयाऽभिसम्बध्योपरञ्जयन्तीत्युक्तम् ।
अब यहाँ पर शंका हो सकती है कि अहंकार से उत्पन्न होनेवाली इन्द्रियाँ तथा चित्त सर्वव्यापक है अतः सभी विषयों के साथ इनका सदा सम्बन्ध होता है । इस प्रकार तो सभी समय, सभी जगह, सभी चीजों का ज्ञान होने लगेगा। [ तात्पर्य यह है कि चित्त और इन्द्रियों को विभू माना जाता है। यदि चित्त को विभु न मानकर अणु मानेंगे तो एक बार में अनेक विषयों के साथ सम्बन्ध नहीं हो सकेगा तथा एकाग्रता माननी पड़ेगी । जब एकाग्रता पहले से ही सिद्ध है तब योगशास्त्र में एकाग्रता के उपदेश की विधि व्यर्थ ही हो जायगी । इसीलिए चित्त को विभु मानते हैं । दूसरे, यदि मन विभु नहीं होता तो सुगन्धित जल पीने में या बड़े-बड़े पुए खाने में एक साथ ही जो दो इन्द्रियों के द्वारा अनुभूति होती है ( सुगन्ध-नाक, जल-जीभ; बड़े-बड़े-आँख, पुए-जीभ ) वह नहीं हो सकती । योगी