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________________ ३४५ औलूक्य-दर्शनम् ( ४. पदार्थों की संख्या-छह या सात ? ) ननु षडेय पदार्था इति कथं कथ्यते ? अभावस्यापि सद्भावात् इति चेतमैवं वोचः । नअर्थानुल्लिखितधीविषयतया भावरूपतया षडेवेति विवक्षितत्वात् । तथापि कथं षडेवेति नियम उपपद्यते ? विकल्पानुपपत्तेः । नियमव्यवच्छेद्यं प्रमितं न वा ? प्रमितत्वे कथं निषेधः ? अप्रमितत्वे कथंतराम् ? अब यह प्रश्न है कि आप कैसे कहते हैं कि पदार्थ छह ही हैं ? अभाव की भी तो सत्ता है [जिसे सातवां पदार्थ मानते हैं ] । इस प्रश्न पर हम कहेंगे कि ऐसा मत कहो।। निषेधात्मक ( नबर्थ के द्वारा उल्लिखित या बोधित ) प्रतीति ( ज्ञान, धी, प्रत्यय, Knowledge ) को हम अपना विषय नहीं मानते तथा भाव रूप ( भावात्मक Positive ) [प्रतीति को ही हम विषय ] मानते हैं, इसलिए हमारी विवक्षा ( कहने की इच्छा ) से ही छह पदार्थ माने गये हैं। [ नबर्थ के रूप में निषेध को समझ लेने के लिए अभाव भी एक पृथक् पदार्थ रहे, इसमें हमें कोई आपत्ति नहीं। किन्तु इस अभाव के द्वारा किसी वस्तु को असत्ता का ही तो बोध होगा, सत्ता का तो नहीं। हम सत्ता का विश्लेषण करना चाहते हैं इसलिए अभाव नहीं स्वीकार करके छह ही पदार्थ मानते हैं जो सब-के-सव भावात्मक हैं।] फिर भी प्रश्न हो सकता है कि यह नियम आप कहां से लाते हैं कि पदार्थ केवल छह ही हैं । [ इसकी सिद्धि के लिए दिये गये ] दोनों विकल्प असिद्ध हो जायंगे। देखिएइस नियम से [ कि पदार्थ छह ही हैं ] व्यावृत्त किया जानेवाला ( Being excluded ) [ सप्तम पदार्थ ] प्रमाणों से सिद्ध है कि नहीं ? [ तात्पर्य यह है कि जब आप 'छह ही' में 'ही' का प्रयोग करते हैं तब अवश्य किसी आगामी पदार्थ को निकाल बाहर ( व्यावृत्त) करते हैं, यह बहिष्करण जिसका हो रहा है उसकी सिद्धि के लिए कोई प्रमाण है या नहीं। या तो सप्तम पदार्थ प्रमाणसिद्ध होगा या असिद्ध। दोनों ही अवस्थाओं में आप पकड़े जाते हैं।] यदि वह ( सप्तम पदार्थ) प्रमाणों से सिद्ध है तब उसका निषेध क्यों कर रहे हैं ? [प्रमाण से सिद्ध पदार्थ तो सदा स्वीकार्य है, उसका निषेध नहीं हो सकता । ] यदि प्रमाणों से उसकी सिद्धि नहीं हो रही हो तब तो निषेध करना और भी कठिन है। [ असिद्ध या असत् वस्तु का निषेध करने में अपना समय कौन मूर्ख नष्ट करेगा ? ] न हि कश्चित्प्रेक्षावान्मूषिकविषाणं प्रतिषेधुं यतते । ततश्चानुपपत्तेर्न नियम इति चेत्-मैवं भाषिष्ठाः । सप्तमतया प्रमितेऽन्धकारावौ भावत्वस्य, भावतया प्रमिते शक्तिसादृश्यादौ सप्तमत्वस्य च निषेधादिति कृतं विस्तरेण ।
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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