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________________ ७१० सर्वदर्शनसंग्रहे इसे शबर स्वामी कहते हैं-'जो व्यक्ति [ साधन और साध्य-जैसे धूम और अग्नि का ] सम्बन्ध जानता है वह जब लिंग ( साधन-धूम ) से विशिष्ट धर्मी ( जैसे पर्वत, जंगल आदि जहाँ भी धूम हो ) का एक भाग देखकर लिंगी ( साध्य-अग्नि ) में विशिष्ट धर्मी ( पर्वत ) के एक भाग का बोध करता है, तो वही अनुमान है।' [ साधनयुक्त धर्मी को देखकर उसकी साध्ययुक्तता का ज्ञान करना अनुमान है। कोई नयी चीज शबर स्वामी ने नहीं कही है। हमारे आचार्य ने भी कहा है-'गम्य ( साध्य ) में जो ज्ञापक ( गमक = साधन, हेतु, लिंग ) लिया जाता है वह उभयात्मक ( अर्थात् व्याप्ति-विशिष्ट और पक्ष में स्थित भी ) होता है । यदि उसका एक भाग भी असिद्ध हो गया ( जैसे हेतु व्याप्तियुक्त होने पर भी पक्षनिष्ठ न हो या पक्षनिष्ठ होने पर भी व्याप्तिमान न रहे ) तो गम्य ( साध्य ) की सिद्धि नहीं हो सकती इसलिए वैसा हेतु साध्य का बोधक नहीं हो सकता ॥ ४० ॥' (१४. आरोप के विषय में शंका समाधान ) ननु भवत्पक्षेऽपि पुरःस्थितस्येदमर्थस्य परमार्थतो रजतत्वं नास्तीति न रजतत्वं धर्मेकदेश इति चेन्न । यक्षानुरूपो बलिरितिन्यायेनानुमित्याभासानुगुणस्यैकदेशस्य विद्यमानत्वात् । तथा च प्रयोगः विवादाध्यासितं रजतज्ञानं पुरोतिविषयं रजतार्थिनस्तत्र नियमेन प्रवर्तकत्वात् । यदुक्तसाधनं तदुक्तसाध्यम्, यथोभयवादिसम्मतं सत्यरजतज्ञानम् । . विवादपदं शुक्तिशकलं रजतज्ञानविषयोऽव्यवधानेन रजतार्थिप्रवृत्तिविषयत्वाद्रजतपदसमानाधिकरणपदान्तरवाच्यत्वाद्वा वस्तुरजतवत् । ___ कोई शंका कर सकता है कि आपके पक्ष (सीपी पर रजत का आरोपवाला पक्ष ) में भी तो सामने में विद्यमान 'इदम्' का अर्थ ( प्रतीत वस्तु ) वास्तव में रजत नहीं हैं इसलिए 'रजतत्व' [ हेतु जो आपने ऊपर दिया है वह ] धर्मी ( पर्वतादि ) का एक भाग नहीं बन सकता। परन्तु ऐसी बात नहीं है । 'यज्ञ के अनुसार बलि दी जाती है' इस नियम से अनुमान के द्वारा यह ज्ञात होता है कि धर्मी का एक भाग प्रतीति के अनुरूप ही [ अवास्तविक रूप में ] विद्यमान है । [ धर्मी का एक भाग = रजतत्व । 'इदम्' के द्वारा प्रतीत वस्तु में साध्य अर्थात् उपकारकता वस्तुतः तो नहीं है, कुछ देर तक प्रतीत होती है। साध्य यदि अवास्तविक है तो उसके साधन को क्या पड़ा है कि वह वास्तविकता बनने जाय ? अवास्तविक साध्य का साधन-रजतत्व-भी यदि अवास्तविक हो जाय तो क्या हानि है ? उपकारकत्व की जैसी प्रतीति, वैसी ही रजतत्व की । जैसे को तैसा ! ] इसके लिए अनुमान प्रयोग ( Form of inference ) इस रूप में होगा
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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