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________________ १२५ आहेत-दर्शनम् अलग ) होने का नाम विवेक है ॥ २९ ॥ कर्ता में रहनेवाले राग आदि दोष हेय हैं, क्योंकि इनका कार्य है अविवेक । ( रागादि के कारण हम चित्-अचित् में भेद नहीं कर पाते । ) उपादेय ( ग्राह्य ) है तो [ ज्ञान की ] वह परम ज्योति जिसका एकमात्र लक्षण ( या चिन्ह ) है 'उपयोग' ॥ ३० ॥ विशेष-उपादेयमुपा० = कुर्वतः (कुर्वता ) उपादेयम् (= वस्तु ) उपादेयम् ( = ग्राहम् ) अर्थात् कर्ता को उपादेय वस्तु का ग्रहण करना चाहिए, उसी प्रकार हेय वस्तुओं का त्याग करना चाहिए। परम ज्योति ( जीव, चित् ) का एक विशेष चिह्न है उपयोग ( Consiousness ) । इसके भी दो भेद हैं-उपयोग और लब्धि । जीव में अवस्थित चेतना का नाम लब्धि ( Dormant consciousness ) है किन्तु जब यही चेतना कार्यरूप में आती है तब उपयोग ( Active consciousness ) कहलाती है । एक अवस्थित योग्यता बतलाती है, दूसरी कार्यान्विति । उपयोग साकार भी हो सकता है निराकार भी। साकार उपयोग को ज्ञान और निराकार उपयोग को दर्शन कहते हैं। इसके बाद उपयोग का निरूपण होगा। सहजचिद्रूपपरिणति स्वीकुर्वाणे ज्ञानदर्शने उपयोगः। स परस्परप्रदेशानां प्रदेशबन्धात्कर्मणकीभूतस्यात्मनोऽन्योन्यत्वप्रतिपत्तिकारणं भवति । सकलजीवसाधारणं चैतन्यम् उपशमक्षयक्षयोपशमवशात् औपशमिकक्षयात्मक-क्षायौपशमिकभावेन कर्मोदयवशात्कलुषान्याकारेण च परिणतजीवपर्यायविवक्षायां जीवस्वरूपं भवति । यदवोचद्वाचकाचार्यः- 'औपशमिकक्षायिकौ भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिकपारिणामिको च' ( त० सू० २।१) इति। ' [ जीवात्मा का ] स्वाभाविक चैतन्य के रूप में जो परिणाम ( Change ) हैं उसी को स्वीकार करनेवाले ( पहचाननेवाले ) ज्ञान और दर्शन को उपयोग ( जीवात्मा की क्रियाओं का वास्तविक प्रयोग ) कहते हैं। [ बृहद्रव्य-संग्रह के आरम्भ में ही कहा है कि विवक्षित पदार्थ को व्याप्त करनेवाला, पदार्थ का ग्रहण करनेवाला व्यापार ही उपयोग है। सच में उपयोग वही है जिससे किसी वस्तु का रहस्य हम जानें, चित् का स्वाभाविक रूप जानें, उसका परिणाम जानें, जीवात्मा का जानें आदि । तो इसके दो रूप हैं-ज्ञान और दर्शन । दोनों व्यापारों में जीवात्मा का सहज-परिणाम ( = चैतन्य रूप में ) एक तरह का ही होता है क्योंकि इस परिणाम के बाद ही ज्ञान और दर्शन दोनों की उत्पत्ति होती है-प्रत्यक्ष और साकार होने पर ज्ञान कहलाता है, परोक्ष और निराकार होने पर दर्शन (श्रद्धा) कहलाता है। अब आगे यह बतला रहे हैं कि 'उपयोग' जीवात्मा का लक्षण है। [ जीव और कर्म के ] पारस्परिक प्रदेशों ( अवयवों ) के मिश्रण ( प्रदेशबन्ध ) के कारण कर्म के साथ मिली-जुली ( एकीभूत ) आत्मा के पार्थक्य ( = कर्म और आत्मा के
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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