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________________ जैमिनि-दर्शनम् उपयुक्त कारणसामग्री ) को ही समझते हैं जब कि दूसरे लोग इसका कारण किसी अन्य साधन (जैसे स्मृति, अनुमान आदि ) को समझते हैं । यही बात अप्रामाण्य के सम्बन्ध में भी है। अपने आप में यदि अप्रामाणिकता उत्पन्न या ज्ञात हो तो अप्रामाण्य स्वत: है, अन्यथा परत: है यदि वह किसी दूसरे साधन से उत्पन्न होती है । विभिन्न दार्शनिकों के विवाद इस प्रकार हैं "" (१) सांख्यों के अनुसार, प्रामाण्य स्वतः अप्रामाण्य स्वतः । ( २ ) नेयायिकों परतः, परतः । ( ३ ) बौद्धों परतः, स्वतः । ( ४ ) मीमांसकों स्वतः, परतः । 17 "" 33 प्रामाण्यवाद के प्रश्न पर मीमांसकों का सबसे बड़ा विवाद नैयायिकों के ही साथ है । यद्यपि नेयायिक और मीमांसक अप्रामाण्य के प्रश्न पर एकमत हैं कि यह परत: है, पर प्रामाण्य के विषय में दोनों एकान्त-विरोधी हैं । यायिकों का कथन है कि प्रामाण्य तभी उत्पन्न हो सकता है जब ज्ञान को उत्पन्न करनेवाले सभी साधन विद्यमान हों, इन्द्रियाँ ठीक हों आदि । ये साधन बाह्य हैं । विषये - न्द्रियसन्निकर्ष होने पर 'अयं घटः ' यह व्यवसायात्मक ज्ञान उत्पन्न होता है । तब ' अहं घटं जानामि' इस रूप में अनुव्यवसाय का जन्म होता है । इसके बाद प्रामाण्य और अप्रामाण्य की स्मृति होती है, तब इस प्रत्यक्षज्ञान के विषय में सन्देह उत्पन्न होता है-अन्त में प्रवृत्ति के सफल होने पर ज्ञान को प्रामाणिक कहते हैं । अतः अनुमान के द्वारा प्रामाण्य की उत्पत्ति होने से ये लोग परतः प्रामाण्यवाद स्वीकार करते हैं । "" 17 "7 " ४७७ "1 इस पर मीमांसक कहते हैं कि उक्त बाह्य साधन वास्तव में उस ज्ञान के सामान्य साधन हैं, क्योंकि उनके बिना विश्वास नहीं होगा और इसलिए कोई ज्ञान नहीं होता । नेयायिकों को यह उक्ति कि प्रामाण्य अनुमान से उत्पन्न होता है-भ्रान्त है, क्योंकि इससे अनवस्था होगी और सारे व्यवहार निष्फल हो जायेंगे । यदि किसो प्रत्यक्ष के समर्थन के लिए अनुमान की आवश्यकता है तो न्याय के नियम के ही अनुसार अनुमान का भो तो समर्थन किसी दूसरे अनुमान से होगा । इस तरह एक प्रत्यक्ष पर अनन्त काल तक अनुमान चलते रहेंगे । इस तरह करने से संसार का काम कैसे चलेगा ? मोटर की ध्वनि सुनते ही हम बगल हो जाते हैं । यदि सुनने के बाद अपने प्रत्यक्ष ज्ञान की प्रामाणिकता के लिए अनन्त काल तक चलनेवाले अनुमानों में डूबे रहेंगे तो डग डग पर दुर्घटना होती रहेगी । यह सच है कि सन्दिग्ध स्थलों पर प्रामाण्य के लिए हमें अनुमान का सहारा लेना पड़ता है, किन्तु यहाँ पर अनुमान का काम इतना ही है कि ज्ञान के मार्ग में आनेवाली कठिनाइयों को वह दूर कर दे । इनके दूर हो जाने पर ज्ञान अपने आप में सामान्य साधनों ( कारणसामग्री ) से उत्पन्न होता है। ज्ञान उत्पन्न होने पर प्रामाण्य की तथा प्रामाण्य में विश्वास की उत्पत्ति भी होती है ।
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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