SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 508
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैमिनि-पर्शनम् ४७१ उगने पर कहते हैं कि ये वही केश हैं। यहाँ तो उस नियम का उल्लंघन अर्थात व्यभिचार हुआ। अब इन विकल्पों की खबर लेते हुए पहले दूसरे विकल्पों की ही आलोचना करते हैं।] . यदि कहीं-कहीं व्यभिचार-दर्शन के कारण [ उपर्युक्त सामान्य-निवन्धनत्व = वर्गों के तादात्म्य के कारण उनकी समता की प्रतीति ]' माननी पड़ रही हो तो इस पर वेदों को अपने-आप में प्रामाणिक माननेवाले ( मीमांसक ) कहते हैं-'जो ( मूर्ख) अपनी मूर्खता के कारण अज्ञात बाधाओं की भी सम्भावना ( उत्प्रेक्षा ) करता रहता है, वह संशयात्मा संसार के सभी व्यवहारों में मारा ही जाता है ॥७॥ [ कोई रेलगाड़ी पर बैठते हुए सोचने लगे कि कहीं दुर्घटना न हो जाय, या कहीं खाते समय सोचे कि वह मर न जायअभिप्राय यह है कि बाधा अज्ञात रहने पर भी उसी की चिन्ता में डूब जाय तो ऐसे व्यक्ति संसार में कोई काम नहीं कर सकते । प्रत्यभिज्ञावाले भी यदि किसी दृष्टान्त में व्यभिचार होने के भय से अपने सिद्धान्तों का परिमार्जन करने लगते हैं तो इन्हें दार्शनिक कहने का दम्भ नहीं करना चाहिए।] नन्विदं प्रत्यभिज्ञानं गत्वादिजातिविषयं न गादिव्यक्तिविषयम् । तासां प्रतिपुरुष भेदोपलम्भात् । अन्यथा 'सोमशर्माऽधीते' इति विभागो न स्यादिति चेत् तदपि शोमां न विति। गादिव्यक्तिभेदे प्रमाणाभावेन गत्वादिजातिविषयकल्पनायां प्रमाणाभावात् । यथा गोत्वमजानत एकमेव भिन्नदेशपरिमाणसंस्थानव्यक्त्युपधानवशाद्धिन्नवेशमिवाल्पमिव महदिव दीर्घमिव वामनमिव प्रथते तथागव्यक्तिमजानत एकापि व्यञ्जकभेदात् ततधर्मानुबन्धिनी प्रतिभासते। [ अब बलवान् बाधकवाले पक्ष पर प्रहार करते हैं-ये नेयायिक लोग पूछ सकते हैं कि ] यह प्रत्यभिज्ञान ( यह वही गकार है जिसे पहले देखा था, इस रूप में होनेवाली प्रत्यभिज्ञा ) गत्व आदि जाति से सम्बद्ध है, न कि ग आदि व्यक्ति से । कारण यह कि प्रत्येक पुरुष के उच्चारणों की भिन्नता के कारण ग आदि वर्गों के व्यक्ति-रूप ( Individual forms ) भिन्न-भिन्न होते हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो सोमशर्मा पढ़ रहे हैं ऐसे व्यवहार में विभाग नहीं हो सकता। [ यदि सभी गकार-व्यक्ति एक ही होते तो जिस ग का उच्चारण सोमशर्मा ने किया है उसी का दूसरे ने भी किया होगा, तो फिर राम पड़ता १. कटे हुए केशों के फिर से उग जाने के दृष्टान्त में केश-व्यक्ति का भेद प्रत्यक्ष रूप से दिखलाई पड़ता है। विवश होकर नियम-व्यभिचार स्वीकार करना पड़ता है। दूसरे किसी भी दृष्टान्त में बाधा देनेवाला कोई नहीं है। इसलिए इस स्थान पर व्यभिचार देखकर मानना पड़ता है कि एकल्व न रहने पर भो सादृश्य के कारण प्रत्यभिज्ञा होती है। इसी के उत्तर में मीमांसक सातवें श्लोक का उपन्यास करते हैं ।
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy