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सर्वदर्शनसंग्रहे
जो कर्म अर्जित किया गया हो उसे अपनी तपस्या इत्यादि ( = ध्यान, जप ) से नष्ट कर देना 'निर्जरा' नामक तत्त्व है। बहुत दिनों से प्राप्त किये हुए कषाय ( कर्म ) समूह से उत्पन्न पुण्य ( Merit ) तथा सुख और दुःख को भी यह ( तत्त्व ) देह से ही नष्ट करता है ( जरयति = / जू ) । केशों को उखाड़ना आदि तप कहलाता है ।
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यह निर्जरा दो प्रकार की है - यथाकाल और औपक्रमिक । पहली ( यथाकाल निर्जरा ) वह है जब किसी काल में कोई कर्म फलदायक समझा जाता है ( या अभीष्ट होता है ) तब उसी काल में फल देने के बाद उत्पन्न होनेवाली निर्जरा, कामनाओं की पूर्ति के बाद भी होती है । अभिप्राय यह है कि कर्म का किसी कालविशेषमें फलोत्पादन के पश्चात् नष्ट हो जाना यथाकाल (Temporary ) निर्जरा है । ] लेकिन जब तपोबल द्वारा अपनी इच्छा से उदयावस्था में कर्म को जलाकर [ नष्ट किया जाय ] वह औपक्रमिक ( Requ iring efforst ) निर्जरा है । जैसा कि कहा है- 'संसार ( आवागमन ) के कारणस्वरूप जो कर्म हैं उनके विनाश से निर्जरा होती है जिसके दो भेद हैं- सकाम निर्जरा और अकाम निर्जरा । सकाम ( औपक्रमिक ) निर्जरा यम धारण करनेवाले ( तपस्वियों ) की होती है, दूसरे प्राणियों की अकाम ( यथाकाल, अपने आप होनेवाली ) निर्जरा होती है ।' ( २४. मोक्ष का विचार )
मिथ्यादर्शनादीनां बन्धहेतुनां निरोधेऽभिनवकर्माभावान्निर्जराहेतुसन्निधानेनाजितस्य कर्मणो निरसनादात्यन्तिककर्ममोक्षणं मोक्षः । तदाह-बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षणं मोक्षः ( त० सू० १०।२ ) इति । तदनन्तरमूर्ध्वं गच्छत्यालोकान्तात् ( त० सू० १०५ ) ।
मिथ्यादर्शन ( False knowledge ) आदि बन्ध के कारण हैं, उनका निरोध ( संवर ) कर लेने पर नये कर्मों का अभाव होकर, निर्जरा-रूपी कारण के सम्पर्क से पूर्वोपार्जित कर्मों का विनाश हो जाता है, तब सब प्रकार के कर्मों से सदा के लिए ( आत्यन्तिक = पूर्ण ) मुक्ति मिल जाती है, यही मोक्ष है । कहा है-बन्ध के कारणों का अभाव ( संवर ) तथा निर्जरा से सभी कर्मों से बच जाना मोक्ष है ( त० सू० १०।२ ) । उसके बाद प्राणी ऊपर ही चला जाता है जब तक लोक का अन्त न मिल जाय ( त० सू० १० । ५ ) ।
विशेष – जैन लोग मोक्ष के दो कारण मानते हैं - संवर और निर्जरा । संवर से
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आस्रव ( कर्मोदय ) रुकता है, नये कर्म उत्पन्न नहीं होते । निर्जरा से अर्जित कर्मों का भण्डार भस्म कर दिया जाता है। इस प्रकार कर्मों के बन्धन से बिल्कुल निकल जाना मोक्ष है। इसके विपरीत कर्मसंपृक्त होना बन्ध है । मोक्ष होने पर पाणी ऊपर की ओर उठता-उठता लोकों को पार करके सबसे ऊपर पहुँच जाता है ।