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________________ सर्वदर्शनसंग्रहे इसलिए बाह्यार्थ भी कभी-कभी ही उत्पन्न होगा । वासना के परिणाम की प्रतीति सदा ही होती है-उसे लिए कोई साधन या हेतु नहीं है । इसे ही अब स्पष्ट ७२ की प्रतीति कभी-कभी होती है, ( विज्ञानवादियों के मत से ही 'कभी-कभी होना' सिद्ध करने के किया जायगा - ) । ( २५. विज्ञानवादियों के मत पर दोषारोपण ) विज्ञानवादिनये हि वासना नाम एकसन्तानवर्तिनामालय-विज्ञानानां तत्तत्प्रवृत्तिविज्ञानजननशक्तिः । तस्याश्च स्वकार्योत्पादं प्रत्याभिमुख्यं परिपाकः । तस्य च प्रत्ययः कारणं स्वसन्तानवर्तिपूर्वक्षणः कक्षीक्रियते । सन्तानान्तरनिबन्धनत्वानङ्गीकारात् । विज्ञानवादियों के मत से 'एक प्रवाह ( सन्तान, परम्परा ) में विद्यमान रहने वाले जो आलय - विज्ञान हैं, वे जब अपने से सम्बद्ध प्रवृत्तिविज्ञानों को उत्पन्न करते हैं, तब उनकी उसी शक्ति का नाम वासना है ।' ('अहम्' इसआकार में रहनेवाले क्षणिक आलयविज्ञानों की परम्परा प्रत्येक जीव के लिए भिन्न है। उससे प्रवृत्तिविज्ञान की उत्पत्ति होती है । राम के आलय-विज्ञानों की परम्परा पर आधारित आलय - विज्ञान राम से ही सम्बद्ध प्रवृत्तिविज्ञान को उत्पन्न करता है । इस तरह आलय - विज्ञान में प्रवृत्तिविज्ञान उत्पन्न करने की जो शक्ति है, उसी को वासना कहते हैं ) । उस ( वासना ) का अपने कार्योत्पादन ( प्रवृत्तिविज्ञान की उत्पत्ति ) के प्रति उन्मुख या प्रवृत्त होना ही परिपाक ( वासना का परिणाम ) कहलाता है । [ वासनाएं क्षणिक हैं, क्षण-क्षण बदलती हुई वासनाओं के बीच किसी-किसी का ही परिपाक हो पाता है, सबों का नहीं । कारण यह है कि परिपाक से उत्पन्न वृत्तिविज्ञान की उत्पत्ति सदा नहीं देखी जाती । इस कादाचित्क परिपाक का कोई कादाचित्क कारण अवश्य देना चाहिए । सौत्रान्त्रिक लोग तो कहेंगे कि इसका कारण घटादि बाह्यार्थ है । विज्ञानवादी तो इसे कारण नहीं मानेंगे, क्योंकि वे तो बाह्यार्थ को मानते ही नहीं । वे लोग कहेंगे कि ] उस परिपाक की जो प्रतीति होती है, उसका कारण अपने प्रवाह में स्थित पूर्वक्षण को हम स्वीकार करते हैं । [ पूर्वक्षण की वासना उत्तर-क्षण की वासना के परिपाक का कारण है, उसी तरह सभो वासनाएं आलय - विज्ञान की परम्परा होने के कारण तुल्य होंगी और अपने-अपने उत्तर-क्षण की वासनाओं के परिपाक का कारण बन जायेंगी । प्रवृत्तिविज्ञान भी सदा उत्पन्न होने लगेगा | ] कारण यह है कि वासना के परिपाक को हम किसी दूसरे सन्तान ( ज्ञान- सन्तान से भिन्न घटादि ज्ञेयसन्तान ) के अधीन नहीं मानते । ( हम ज्ञान को ही मानते हैं. इसी के अधीन वासना का परिपाक है । ) प्रवृत्तिविज्ञानजनकालयविज्ञानवर्तिवासनापरिपाकं प्रति सर्वेप्यालयविज्ञानवर्तिनः : क्षणाः समर्था एवेति वक्तव्यम् । न चेदेकोऽपि न ततश्च
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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