SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 108
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बौर-दर्शनम् ७१ प्रकार समुद्र में वायु-प्रेरित तरंगें उठती रहती हैं, कभी विराम नहीं लेती--उसी प्रकार आलय-विज्ञान में भी बाह्य विषयों के झकोरों की चित्र-विचित्र विज्ञानरूपी तरंगें उठती हैं। ये कभी भी नष्ट नहीं होती । आलयविज्ञान समुद्र है, विषय पवन है, तथा विज्ञान ( सात प्रकार के प्रवृत्तिविज्ञान ) तरंगें हैं तरङ्गा उदधेर्यद्वल्पवनप्रत्ययेरिताः । नृत्यमानाः प्रवर्तन्ते व्युच्छेदश्च न वर्तते ॥ आलयौघस्तथा नित्यं विषयपवनेरितः । चित्रैस्तरङ्गविज्ञानः नृत्यमानः प्रवर्तते ।। इससे स्पष्ट है कि प्रवृत्तिविज्ञान भी इसमें डूबते-उतराते हैं । __दूसरी ओर, प्रवृत्ति-विज्ञान क्रियाशील चित्त है जिससे विषयों को प्रतीति होती है, यह आत्मा के समान नहीं है किन्तु आलयविज्ञान से ही उत्पन्न होता है और उसी में विलीन हो जाता है। इसके सात भेद हैं-( १ ) चक्षुर्विज्ञान, ( २ ) श्रोत्रविज्ञान, ( ३ ) घाणविज्ञान, ( ४ ) जिह्वाविज्ञान, (५) कायविज्ञान ( ६ ) मनोविज्ञान और (७) क्लिष्ट मनोविज्ञान । इन सबों का विवेचन इतने सूक्ष्म ढंग से बौद्धों ने किया है कि आधुनिक मनोविज्ञान को भी इनके समक्ष नतमस्तक हो जाना पड़ेगा। इन पर प्रकाश डालने के लिए पर्याप्त अनुसन्धान और अध्यवसाय की अपेक्षा है । विद्वानों के सत्प्रयास से यह सम्भव है । विज्ञप्तिमात्रतासिद्धि में इनका सम्यक् विवेचन है । तत्रालयविज्ञानं नामाहमास्पदं विज्ञानम् । नीलाद्युल्लेखि च विज्ञानं प्रवृत्तिविज्ञानम् । यथोक्तम्२३. तत्स्यादालयविज्ञानं यद्भवेदहमास्पदम्। तत्स्यात्प्रवृत्तिविज्ञानं यन्नीलादिकमुल्लिखेत् ॥ इति । तस्मादालयविज्ञानसन्तानातिरिक्तः कादाचित्कप्रवृत्तिविज्ञानहेतुर्बाह्योऽर्थो ग्राह्य एव, न वासनापरिपाकप्रत्ययकादाचित्कत्वात् कदाचिदुत्पाद इति वेदितव्यम् । ___ उनमें आलय-विज्ञान वह चैतन्य ( बुद्धि ) है, जो 'अहम्' ( मैं = आत्मा ) का स्थान है ( अहम् के आकार में है )। नीलादि पदार्थों को व्यक्त करने वाला | इदम् से सम्बद्ध । विज्ञान प्रवृत्तिविज्ञान है। जैसा कि कहा गया है-'वह आलय-विज्ञान है, जो आत्मा ( Ego ) का स्थान है और वह प्रवृत्तिविज्ञान है, जो नीलादि पदार्थों को अभिव्यक्त करता है। इसलिए आलय-विज्ञान के सन्तान ( प्रवाह, क्योंकि सब कुछ क्षणिक है, अत: उनका प्रवाह ही सम्भव है ) के अतिरिक्त, कभी-कभी होनेवाले प्रवृत्तिविज्ञान का कारण ( घटादि ) बाह्य पदार्थ है, अतः उसे तो ग्रहण करना ही होगा। ऐमा न समझें कि वामना के परिणाम
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy