SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 100
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बौद्ध दर्शनम् ६३ और भी - " यद्यपि बुद्धि की आत्मा ( = स्वरूप ) अविभक्त है, एक ही है तथापि भ्रम ( विपर्यास ) से भरी आँखों के कारण ऐसा प्रतीत होता है कि ग्राह्य और ग्राहक की चेतना ( ज्ञान ) से इसमें भेद बना हुआ है ।" ( बुद्धि एक है, पर अनादि भदवासना से इसमें तीन भेद - ज्ञेय, ज्ञाता और ज्ञान -- तो स्पष्ट अवभासित होते हैं ) । न च रसवीर्यविपाकादि समानमाशामोदकोपार्जितमोदकानां स्यादिति वेदितव्यम् । वस्तुतो वेद्य-वेदकाकारविधुराया अपि बुद्धेः व्यवहर्तृपरिज्ञानानुरोधेन विभिन्नग्राह्यग्राहकाका ररूपवत्तया तिमिराद्युपहताक्ष्णा केशोण्डुकनाडीज्ञानभेदवत् अनाद्युपप्लववासनासामर्थ्यात् व्यवस्थोपपत्तेः पर्यनुयोगायोगात् । यथोक्तम् १७. अवेद्यवेदकाकारा यथा भ्रान्तैनिरीक्ष्यते विभक्तलक्षणग्राह्य ग्राहकाका रविप्लवा ॥ [ कुछ लोग शायद समझते होंगे कि जब विज्ञानवादी समस्त बाह्यार्थ को असत् के रूप में एक समान मानते हैं तब तो काल्पनिक वास्तविक पदार्थ में भी कुछ अन्तर नहीं मानते होंगे । विरोधियों की इस शंका की आशा विज्ञानवादियों ने पहले से की थी और इसलिए वे कहते हैं ] । ऐसा न समझें कि काल्पनिक मिठाई ( आशामोदक ) और वास्तविक मिठाई ( उपार्जित मोदक ) दोनों के खाने पर रस, वीर्य, विपाक ( पचना ) आदि एक ही तरह के होंगे ( आशामोदक की तरह ही उपार्जित मोदक भी कल्पनामय है और दोनों के खाने का समान फल होगा- ऐसी बात नहीं है ) । आप इस तरह का प्रश्न ( पर्यनुयोग ) नहीं कर सकते हैं । वास्तविकता यह है कि बुद्धि भले ही ज्ञेय (वेद्य ) और ज्ञाता ( वेदक ) के रूपों से बिल्कुल पृथक् ( विधुर ) हो तथापि प्रयोग करनेवालों ( व्यवहर्त्ता ) से ज्ञान का अनुरोध यही है ( कि बुद्धि के ज्ञाता ज्ञेय रूप से भेद हैं- 'मैं घट जनता हूँ' – इसमें 'मैं' ज्ञाता और 'घट' ज्ञेय है ) । यही कारण है कि [ यद्यपि बुद्धि न तो ज्ञाताकार है, न ज्ञानाकार और ज्ञेयाकार फिर भी ] ग्राह्यग्राहक के आकार में विभिन्न रूप धारण कर लेती है । यह व्यवस्था ( भेद- दशा ) एक अनादि मिथ्या ज्ञानविषयक वासना ( चित्त में जमी हुई भावना ) की शक्ति के कारण है ( = मिथ्याज्ञान एक अनादि वासना है इसी से ग्राह्य-ग्राहक के रूप में बुद्धि के भेद प्रतीत होते हैं | ( उदाहरणार्थ - ) जिनकी आँखें तिमिर ( एक नेत्र रोग ) आदि ( पित्तआदि ) दोषों से दूषित हैं उन्हें [ आकाश में ] कभी केश की तरह, कभी उण्डुक ( मकड़जाल ) की तरह और कभी नाड़ी की तरह [ रेखा दिखलाई पड़ती है ] - इसी ज्ञान के भेद की तरह ( उपर्युक्त - व्यवस्था भी है ) । [ सारांश यह हुआ कि वासना के कारण ही उपार्जित मोदक खाकर तृप्त होने का ज्ञान होता है, आशामोदक से ऐसा नहीं होता । ज्ञान का भेद वासना के भेद से ही सिद्ध होता []
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy