SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 101
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सर्वदर्शनसंग्रहे जैसा कि कहा गया है - ' [ वस्तुतः ] वेद्य और वेदक के आकार में बुद्धि नहीं है, किन्तु भ्रम में पड़े हुए लोग इसके लक्षण ( स्वरूप ) को विभक्त -- ग्राह्य ( घटादि ) और ग्राहक ( आत्म-व्यवसाय ) के आकारों से सम्पन्न - देखते हैं ।' ( इसका कारण आगे श्लोक में है ) । ૬૪ १८. तथा कृतव्यवस्थेयं केशादिज्ञानभेदवत् । यदा तदा न संचोद्या ग्राह्यग्राहकलक्षणा ॥ इति । तस्माद् बुद्धिरेवानादिवासनावशात् अनेकाकारावभासत इति सिद्धम् । ततश्च प्रागुक्त- भावना - प्रचय-बलात् निखिल वासनोच्छेद-विगलित- विविधविषयाका रोपप्लव विशुद्ध-विज्ञानोदयो महोदय इति । 'ठीक उसी प्रकार इस ( बुद्धि ) में ग्राह्य और ग्राहक के दो स्वरूपों की व्यवस्था ( भेद ) जब केशादि -ज्ञान के भेद की तरह की जाती है तब संदेह नहीं रहना चाहिए [ कि बुद्धि के दो भेद वस्तुतः ही हैं ] ।' इसलिए हमारी यह बुद्धि ही अनादि वासना के वश अनेक आकारों में प्रतीत होती है – यह सिद्ध हुआ । पाश्चात्त्य दर्शन का प्रत्ययवाद -- Idealism - इस विज्ञानवाद से बिलकुल मिलता-जुलता है । इसके अनुसार प्रत्यय या ideas ही संसार की मूलसत्ता अर्थात् Ultimate Reality है । संसार में जो कुछ देखते हैं वे प्रत्ययों के ही प्रक्षेप हैं, बाह्यार्थ कुछ नहीं हैं । इसके विवेचन के लिए भूमिका - भाग देखें ] । इसके बाद पहले कही गयी चार भावनाओं ( क्षणिक, दुःख स्वलक्षण और शून्य ) की वृद्धि के बल से, सभी वासनाओं का उच्छेद ( विनाश ) हो जाता है जिससे विविध प्रकार के विषयों के आकार में जो मिथ्याज्ञान उपप्लव) होते हैं वे गल जाते हैं तथा विशुद्ध विज्ञान ( Consciousness ) का जन्म होता है - यही मोक्ष ( महोदय ) है | ( २१. सौत्रान्तिक-मत - बाह्यार्थानुमेयवाद ) अन्ये तु मन्यन्ते - यथोक्तं 'बाह्यं वस्तुजातं नास्तीति' तदयुक्तम् । प्रमाणाभावात् । न च सहोपलम्भनियमः प्रमाणमिति वक्तव्यम् । वेद्यवेदकयोरभेदसाधकत्वेनाभिमतस्य तस्याप्रयोजकत्वेन सन्दिग्धविपक्षव्यावृत्ति कत्वात् । ननु भेदे सहोपलम्भनियमात्मकं साधनं न स्यादितिचेन्न । ज्ञानस्यान्तमुखतया, ज्ञेयस्य बहिर्मुखतया च भेदेन प्रतिभासमानत्वात् । एकदेशत्वैककालत्व - लक्षण सहत्व-नियमासम्भवाच्च । लेकिन दूसरे ( सौत्रान्तिक-सम्प्रदायवाले बौद्ध ) मानते हैं - यह जो आप कहते हैं कि बाहरी वस्तुओं की सत्ता ही नहीं, यह युक्तियुक्त नहीं है । इसके लिए कोई प्रमाण नहीं दिया जा सकता । आप यह नहीं कह सकते कि साथ-साथ पाये जाने का जो नियम है वही
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy