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औलूक्य-दर्शनम्
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जिसके द्वारा वह वस्तु अन्य सजातीय वस्तुओं से पृथक् की जाय, जैसे- द्रव्य उसे कहते
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हैं जिसमें गुण हों । परीक्षा के द्वारा यह विचार होता है कि उक्त प्रकार से दिये गये लक्षण प्रस्तुत वस्तु में ठीक हैं कि नहीं । न्याय-वैशेषिक के प्रतिपादन की एक अपनी विशेषता है कि इन तीन विधियों से शास्त्र का ज्ञान प्राप्त किया जाता है । उसमें भी परीक्षा पर बहुत जोर दिया जाता है जिसके कारण ये दर्शन अत्यन्त तार्किक माने जाते हैं । यही नहीं, अन्य शास्त्रों पर भी जब विपत्ति आती है तब वे अपनी सुरक्षा के लिए तर्क-शास्त्र का ही आश्रय लेते हैं और पूर्वपक्षियों की खबर इसी परीक्षा के द्वारा लेते हैं । ]
[ अब प्रश्न यह है कि इन तीन विधियों के अतिरिक्त इनमें ] विभाग को भी रखकर चार प्रकार की शास्त्रप्रवृत्ति का वर्णन करना उचित था, आप तीन ही प्रकार की प्रवृत्तियों क्यों मानते हैं ? ऐसा न समझें, क्योंकि विभाग भी एक तरह का उद्देश हो तो है । [ जब वस्तुओं का नाम ग्रहण करते हैं तब विभाजन या वर्गीकरण ( Classification ) करके ही तो नाम लेते हैं, यों ही मनमाने ढंग से तो नहीं । ] इसलिए विभाग को उद्देश के अन्दर ही रख लेते हैं । वैशेषिक दर्शन में उद्देश यही है - द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय, इस प्रकार ये छह ही पदार्थ हैं ।'
किमत्र क्रमनियमे कारणम् ? उच्यते । समस्तपदार्थायतनत्वेन प्रधानस्य द्रव्यस्य प्रथममुद्देशः । अनन्तरं गुणत्वोपाधिना सकलद्रव्यवृत्तेर्गुणस्य । तदनु सामान्यवत्त्वसाम्यात्कर्मणः । पश्चात्तत्त्रितयाश्रितस्य सामान्यस्य । तदनन्तरं समवायाधिकरणस्य विशेषस्य । अन्तेऽवशिष्टस्य समवायस्येति ।
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यहाँ पदार्थों की गणना कराते समय एक विशेष क्रम देखते हैं उसका क्या कारण है ? कहते हैं - सारे पदार्थों का आधार होने के कारण प्रमुख रूप से विद्यमान द्रव्य का उद्देश ( नामग्रहण ) पहले हुआ है । [ नींव का ज्ञान पहले करके तब भवन का निर्माण होता है, मनुष्य को जानने पर ही उसके धर्मों का, जैसे स्थूलता आदि का ज्ञान प्राप्त करते हैं । धर्म का ज्ञान पीछे होता है, धर्मी का पहले। इसी प्रकार सभी पदार्थों का साक्षात् या परम्परा से आधार द्रव्य ही है । गुण और कर्म का तो साक्षात् आधार है । द्रव्यत्व, पृथिवीत्व, घटत्व आदि के रूप में जो सामान्य है उसका भी वह सीधा आधार है । हाँ, गुण और कर्म की जाति ( सामान्य ) अर्थात् गुणत्व और कर्मत्व आदि के लिए उसे ( द्रव्य को ) गुण-कर्म का सहारा लेना पड़ता है— गुणत्व और कर्मत्व क्रमशः गुण और कर्म में हैं और
१. उद्देश दो प्रकार का है -- सामान्य जैसे द्रव्य, गुण, कर्मादि पदार्थों की गणना तथा विशेष जैसे --- पृथ्वी, जल, तेज आदि द्रव्य के भेदों की गणना । गुणों की गणना कराते समय 'विभाग' नाम आता है इसलिए विशेष उद्देश ( अवान्तर भेद के अन्तर्गत ) होने से विभाग को पृथक् नहीं लेते । उद्देश में ही इसे समझ लेते हैं ।