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जैमिनि-पर्शनम्
४७९ तत्रायः सावधः। कार्यकारणभावस्य भेदसमानाधिकरणत्वेन एकस्मिनसम्भवात् । नापि द्वितीयः । गुणस्य सतो ज्ञानस्य प्रामाण्यं प्रति समवायिकारणतया द्रव्यत्वापातात् ।
(१) उनमें पहला विकल्प तो दोषपूर्ण है, क्योंकि कार्य और कारण के बीच में भेद रहना आवश्यक है, दोनों तत्त्व एक ही में नहीं रह सकते । [प्रामाण्य ही कारण और कार्य दोनों बनकर अपनी उत्पत्ति अपने आप से नहीं कर सकता।।] (२) दूसरा विकल्प भी ग्राह्य नहीं है, क्योंकि ( यदि ज्ञान से प्रामाण्य उत्पन्न होता है तो ) ज्ञान को प्रामाण्य का समवायिकारण मानना पड़ेगा और शान को-जो गुण है, द्रव्य मानना पड़ेगा । [ गुण किसी का समवायिकारण नहीं हो सकता अतः प्रामाण्य (कार्य ) के कारणभूत ज्ञान को द्रव्य मानने का प्रसंग आ जायगा ! देखिये-भाषापरिच्छेद, २३ समवायिकारणल्वं द्रव्यस्येवेति विशेयम् । ]
नापि तृतीयः, प्रामाण्यस्योपाधित्वे जातित्वे वा जन्मायोगात् । स्मृतित्वानधिकरणस्य ज्ञानस्य बाधात्यन्ताभावः प्रामाण्योपाधिः । न च तस्योत्पत्तिसम्भवः । अत्यन्ताभावस्य नित्यत्वाभ्युपगमात् । अत एव न जातेरपि जनियुज्यते।
(३) तीसरा विकल्प भी ठीक नहीं है, क्योंकि उपाधि के रूप में लें या जाति के रूप में, प्रामाण्य का जन्म होता ही नहीं। [प्रामाण्य का अर्थ है, अनेक प्रामाणिक ज्ञानों में रहनेवाला एक धर्म । ऐसे धर्म को सामान्य भी कहते हैं । सामान्य के दो भेद हैंजाति और उपाधि । यदि प्रामाण्य को जाति में लेते हैं, तो जाति नित्य होती है, अतः प्रामाण्य की उत्पत्ति मानना सम्भव नहीं। अब यदि आप कहें कि प्रत्यक्षत्व आदि के सम्बन्ध होने से प्रामाण्य जति नहीं है, तब उसे उपाधि मानें। उपाधि के दो भेद हैंसखण्ड और अखण्ड । यदि प्रामाण्य अखण्ड उपाधि के रूप में है, तो नित्य ही है। यदि वह सखण्ड उपाधि के रूप में हो तब तो द्रव्यादि पदार्थों में अन्तर्भूत होकर कहीं नित्य, कहीं अनित्य हो जायगा । जैसे पृथिवीत्व आदि से मिल जाने के कारण शरीरत्व जाति नहीं है, बल्कि उपाधि है। ऐसा होने से शरीर में चेष्टा का आश्रय होना ही शरीरत्व है' अर्थात् चेष्टा ही शरीरत्व है । अब चूंकि चेष्टा एक प्रकार की क्रिया है, इसलिए शरीरत्व में क्रियारूपी उपाधि होने के कारण अनित्यता का आरोपण हो जायगा। इसमें प्रामाण्य यथार्थानुभवत्व अर्थात् अनुभव में रहनेवाली यथार्थता है। अनुभव चूंकि स्मृति से भिन्न ज्ञान है, इसलिए अनुभव की यथार्थता का अभिप्राय होगा-बाधा ( Obstruction ) का अत्यन्ताभाव । कारण यह है कि बाधित ज्ञान यथार्थ नहीं होता । अतः यहाँ उपाधि है-अनुभवात्मक ज्ञान की बाधा का अत्यन्ताभाव । अब जब उपाधि को ही प्रामाण्य समझते हैं, तब तो उपर्युक्त बाधात्यन्ताभाव को ही प्रामाण्य मानते होंगे । अत्यन्ताभाव भी नित्य ही होता