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शांकर-दर्शनम्
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वत्सविवृद्धयर्थं प्रवर्तत इति । नैतद्रमणीयम् । बुद्धिविशेषशालिनः परमेश्वरस्य तत्राप्यधिष्ठातृत्वाभ्युपगमात् । न च परमेश्वरस्य करुणया प्रवृत्त्यङ्गीकारे प्रागुक्तविकल्पावसरः । सृष्टेः प्राक् प्राणिनां दुःखसम्बन्धासम्भवेऽपि तन्निदानादृष्टसम्बन्धसम्भवेन तत्प्रहाणेच्छया प्रवृत्त्युपपत्तेः ।
[ उक्त प्रकृति की सिद्धि के लिए ] पूर्वपक्षी ( सांख्य ) ने जो उदाहरण दिया है कि दूध आदि अचेतन होने पर भी तथा चेतन का बिना सहारा लिये ही बच्चे के पोषण के लिए ( माता के स्तन में ) उतर आते हैं, वह उदाहरण ठीक नहीं है । कारण यह है कि एक प्रकार की बुद्धि लिये हुए परमेश्वर वहां भी अधिष्ठाता ( आधार ) के रूप में मानना ही पड़ता है ।
यदि 'करुणा (दया) के कारण ईश्वर की प्रवृत्ति होती है' ऐसा मानें तो आपके द्वारा आरोपित विकल्पों को अवसर नहीं मिलता । [ सांख्य दर्शन में ईश्वर की 'करुणया प्रवृत्ति' की हंसी उड़ाई गई है ।" उसमें कहा गया है कि यदि करुणा से ईश्वर की प्रवृत्ति मानते हैं तो दो विकल्प हैं, उनमें कोई तो ठीक होता । पर दोनों ही परास्त हो जाते हैं । वे विकल्प हैं - ( १ ) परमेश्वर सृष्टि के पूर्व ही करुणा से प्रवृत्त होता है, ( २ ) परमेश्वर सृष्टि के बाद करुणा से प्रवृत्त होता है । शंकराचार्य इस 'करुणया प्रवृत्ति' को मानते हैं । इसलिए कहते हैं कि आपके आरोपित विकल्प नहीं लग सकेंगे । ]
सृष्टि के पूर्व यद्यपि प्राणियों का सम्बन्ध दुःख से नहीं है [ जिन्हें दूर करने के लिए ईश्वर में करुणा उत्पन्न होगी ], तथापि दुःखों के निदान ( कारणरूप ) अदृष्ट के साथ तो सम्बन्ध होना सम्भव है । बस, उसी [ अदृष्ट ] को नष्ट करने की इच्छा से [ ईश्वर की ] प्रवृत्ति सिद्ध की जा सकती है । [ सांख्य में उक्त विकल्पों में प्रथम के साथ यह आपत्ति थी कि सृष्टि के पूर्व तो जीवों में शरीर है नहीं और दुःख शरीर पर ही निर्भर करता है । अतः जीवों में जब दुःख ही नहीं है तो ईश्वर में दुःख हरण की इच्छा हो क्यों उत्पन्न होगी ? इसी का उत्तर शंकर ने दिया है । ]
किं च पुरुषार्थप्रयुक्ता प्रधानप्रवृत्तिरित्युक्तं तद्विवेक्तव्यम् । किं प्रधानं केवलं भोगार्थं प्रवर्तते कि वा केवलमोक्षार्थमाहोस्विदुभयार्थम् ? न ताववाद्यः कल्पोऽवकल्पते । अनाधेयातिशयस्य कूटस्थनित्यस्य पुरुषस्य तात्त्विकमोगासम्भवात् । अनिर्मोक्षप्रसङ्गाच्च । येन हि प्रयोजनेन प्रधानं प्रवर्तितं तवनेन विधातव्यम् । भोगेन चैतत्प्रवर्तितमिति तमेव विदध्यान्न मोक्षमिति ।
१. देखिये - सां० द० - यस्तु परमेश्वरः करुणया प्रवर्तकः इति परमेश्वरास्तित्ववादिनां : डिण्डिमः स गर्भस्रावेण गतः । विकल्पानुपपत्तेः । स किं सृष्टेः प्राक्प्रवर्तते सृष्ट्य तरकालं वा ? ( पृ० ५५० ) ।