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औलूक्य-दर्शनम्
भावाः षडेव मुनिना विहितास्तवन्ते
चान्योऽप्यमाव इति सप्तपदार्थशास्त्रम् । सामान्यवर्णनपरोऽपि विशेषरूपोऽसौ नित्यमेव जयति प्रथितः कणादः ॥
--ऋषिः । ( १. दुःखान्त के लिए परमेश्वर का साक्षात्कार ) इह खलु निखिलप्रेक्षावान् निसर्गप्रतिकूलवेदनीयतया निखिलात्मसंवेदनसिद्धं दुःखं जिहासुस्तद्धानोपायं जिज्ञासुः परमेश्वरसाक्षात्कारमुपायमाकलयति।
१. यदा चर्मवदाकाशं वेष्टयिष्यन्ति मानवाः ।
तदा शिवमविज्ञाय दुःखस्यान्तो भविष्यति ॥ इत्यादिवचननिचयप्रामाण्यात् ।
इस संसार में जितने बुद्धिमान लोग हैं वे दुःख का त्याग करना चाहते हैं; क्योंकि दुःख का अनुभव करना उनकी प्रकृति के विरुद्ध पड़ता है और इस दुःख की सत्ता का अनुभव सभी लोग अपनी आत्मा में करते ही है । उस दुःख के विनाश के लिए कोई उपाय जानना चाहते हैं और निदान उन्हें परमेश्वर का साक्षात्कार करना ही उपाय के रूप में दिखलाई पड़ता है। इसकी पुष्टि के लिए निम्नलिखित रूप में प्राप्त वचन प्रमाण होते हैं-'जब चमड़े की तरह आकाश को भी लोग ढंकने लग जायं तभी शिव (परमेश्वर ) को जाने बिना ही दुःख का अन्त होने लगेगा । ( श्वेता० ६।२०)। [ जिस प्रकार चमड़े को ढंकते हैं उसी प्रकार आकाश को नहीं ढंक सकते । शिव के ज्ञान के बिना मुक्ति पाना और आकाश को ढंकना तुल्य है । दोनों ही असम्भव कार्य हैं । '
विशेष—औलुक्य-दर्शन को मुख्यतया लोग वैशेषिक के रूप में जानते हैं । इसके प्रवतक कणाद ऋषि थे जो रास्ते पर गिरे हुए अन्न-कणों को चुनकर उन्हें ही खाकर अपनी
१. इस ढंग से कहना अतिशयोक्ति अलंकार का एक भेद हैं। यदि ऐसी-ऐसी ( असम्भव ) बातें हों तभी इस तरह का कार्य सम्भव है। कालिदास पार्वती के स्मित का वर्णन करते हैं
पुष्पं प्रवालोपहितं यदि स्यान्मुक्ताफलं वा स्फुटविद्रुमस्थम् ।