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________________ रसेश्वर-दर्शनम् ३३५ कर, प्रकाशित होनेवाले समस्त चिन्मय संसार को देखते हुए मनुष्य, सभी कर्म-बन्धनों के नष्ट हो जाने पर यहीं ( पृथ्वी में) ब्रह्मत्व प्राप्त कर लेता है ( ३३)।' ( रसहृदय १।२१-२३)। (१५. रस और परब्रह्म में समता-रसस्तुति ) श्रतिश्च--'रसो वै सः। रसं ह्येवायं लब्ध्वानन्दी भवति' (तै० २७१) इति । तदित्थं भवदैन्यदुःखभरतरणोपायो रस एवेति सिद्धम् । तथा च रसस्य परब्रह्मणा साम्यमिति प्रतिपादकः श्लोकः३४. यः स्यात्प्रावरणाविमोचनधियां साध्यः प्रकृत्या पुनः सम्पन्नः सह तेन दीव्यति परं वैश्वानरे जाग्रति ॥ ज्ञातो यद्यपरं न वेदयति च स्वस्मात्स्वयं द्योतते यो ब्रह्मेव स दैन्यसंसृतिभयात्पायादसौ पारदः॥ इति श्रीमत्सायणमाधवीये सर्वदर्शनसंग्रहे रसेश्वरदर्शनम् । वैदिक प्रमाण भी है-'वह ( परमात्मा ) रस ही है। वह ( पुरुष ) रस ( पारद ) को पाकर आनन्दी ( मुक्त ) होता है' ( तैत्तिरीय० २।७।१ ) तो इस प्रकार भव ( आवागमन ) तथा दैन्य-दुःख के भार से बचने का उपाय रस ही है, यह सिद्ध हुआ। उसी प्रकार 'रस की समता परब्रह्म से है' यह सिद्ध करनेवाला श्लोक [ देखें]-'प्रावरणा [ भ्रान्ति ] से मुक्ति पाने की इच्छावाले व्यक्ति स्वभावतः जिसकी साधना करते हैं, फिर [ यह पारद ] पूर्ण हो जाने से, वैश्वानर के जागृत होने पर उसी के साथ खेलता भी है. जो स्वयं ज्ञात होने पर भी दूसरों को ज्ञात नहीं कराता, अपने आप प्रकाशित होता है. जो ब्रह्म के समान है वह पारद दीनता और संसार के आवागमन के भय से हमें बचावे ।' इस प्रकार श्रीमान् सायण-माधव के सर्वदर्शनसंग्रह में रसेश्वर-दर्शन [ समाप्त हुआ ] । विशेष-उपर्युक्त श्लोक में पारद की स्तुति की गई, जिसमें इसे ब्रह्म के सारे रहस्य-वादी विशेषण दे दिये गये हैं। गफ ने अपने अनुवाद में दूसरी पंक्ति यों रखी हैसम्पन्नः सहते न दीव्यति० अर्थात् पारद सम्पन्न होने पर सहता नहीं और जागृत वैश्वानर होने पर खेलता भी नहीं। इति बालकविनोमाङ्करेण रचितायां सर्वदर्शनसंग्रहस्य प्रकाशाख्यायां व्याख्यायां रसेश्वरदर्शनमवसितम् ।
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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